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"यह केवल तुलनामात्र है। मात्सर्य के लिए सौत को होना भी चाहिए न ? मतलब यही हुआ कि पनीसमय्या जी ने जो कहा वह सन्निधान के ध्यान में शायद नहीं आया, कुछ और बात का सन्निधान के दिमाग़ में मन्यन होता रहा होगा। सो भी विश्राम या बातचीत समाप्त करने की सूचना है। चट्टला! आप सबको पल्लव राजकुमारी के मुकाम पर ले जाओ।" कहकर शान्तलदेवी ने वहीं उस बात को समाप्त कर दिया।
तीनों दण्डनाथ उठकर प्रणाम कर वहाँ से चट्टला के साथ चले गये।
वहीं एक सप्ताह तक विश्रान्ति में रहने के बाद, पहले यादवपुरी की ओर जाने की बात सोचो गयी। और तब जगदल सोमनाथ पण्डित की गय लेकर तुरन्त यात्रा करने का निश्चय हुआ।
उदवादित्य और सिंगिमय्या दोनों पहले यादवपुरी जा पहुँचे और महाराज तथा घट्टमहादेवी के स्वागत के लिए आवश्यक व्यवस्था की। उसी दिन वेलापुरी और दोरसभद्र में भी विजयोत्सव बड़े धूमधाम से मनाये जाने की व्यवस्था करने का निर्णय होने के कारण इन्होंने वहाँ के व्यवस्थापकों के पास खबर भेज दी थी। राज्य के प्रधान नगरों में भी विजयोत्सव समारम्भ की व्यवस्था की गयी थी।
योजना के अनुसार सब कार्य सम्पन्न हुए। पोयसल राज्य की प्रजा आनन्दविभोर धी। पोयसल व्याघ्र-पताका नभोमण्डल की ओर उड़नवाले गराइपक्षी के पंख की भाँति आसमान को छूती हुई फहर रही थी।
"पांग्सल सन्तानश्री चिरायु हों" की ध्वनि दिग्दिगन्त तक व्याप्त होकर प्रतिध्वनित हुई। ___यादवपुरी की जनता महाराज और पट्टमहादेवी को प्रत्यक्ष पाकर विशेष रूप से आनन्दित थी।
विजयोत्सव मंच पर महाराज घिट्टिदेव और पट्टमहादेवी शान्तलदेवी ऊँचे सजे आसनों पर विराजमान थे। बेदी के बायें एक आसन पर अकेली यम्मलदेवी बैठी हुई थी। वटिका की दूसरी ओर उदयादित्य विराजमान थे। वेदिका के निचले स्तर के आसनों पर दोनों तरफ़ दण्डनाथ बैठे हुए थे।
राजमहल के विस्तृत प्रांगण में निर्मित विशाल हरे-भरे मण्डप में केवल यादवपुरी के हो निवासी नहीं, इर्द-गिर्द के सभी ग्रामों के लोग अधिकाधिक संख्या में आये बैठे थे। उनके उस उत्साह का प्रतिफल राजदम्पती का सन्दर्शन था। अपने राजा और रानी को देखना सौभाग्य की यात समझनेवाले उन लोगों ने एक कण्ठ हो घोषित किया, “महाराज बिट्टिदेव चिरायु हों," "पट्टमहादेवी शान्तुलदेवी
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 453