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हो सका। तुम्हारे मन में एक सन्देह का भूत घर कर बैठा है कि तुम्हारी अभिलाषां पूर्ण होने न देने के लिए कहीं कोई रोक-रुकावट डाल रहे हैं। एक बात अच्छी तरह समझ लो । हमने सबको पाप-तौल कर देख लिया है। किसी को तुमसे द्वेष भाव नहीं। अगर किसी को कुछ द्वेष भाव हो भी तो प्रेम से उन्हें अपनाने की शक्ति पट्टमहादेवी में होनी चाहिए। यहीं मेरी आकांक्षा है। परन्तु तुम कहीं गहरे गड्ढे में जा पड़ी हो। पता नहीं तुम कब उससे ऊपर उठोगी। भगवान ही जाने !” "मैं किसी से द्वेष नहीं करती।"
"मैंने कहा कि तुमको अपने मन में निर्व्याज प्रेम बसाना चाहिए।" "तो क्या मैं सन्निधान से प्रेम नहीं करती ?"
"तुम्हारा प्रत्येक कार्य स्वार्थ से घिरा है इसलिए एक परिपूर्ण व्यक्तित्व तुममें विकसित होना मुश्किल है "
"तो मतलब यह कि मैं सन्निधान के योग्य नहीं यही है न सन्निधान का आशय ?"
"तुम जिस पद पर बैठो हो उसके योग्य बनने का प्रयत्न नहीं कर रही हो, मेरे कहने का यह आशय है।"
"योग्य कैसे बनना होगा? मैं जाकर उस चामला के पैर पहूँ? वह आजकल मेरी परवाह ही नहीं करती। आमना-सामना हो जान तो केवल हँस देती है। रही चोप्पि, उसकी बात छोड़िए, लड़की को जन्म देकर ही वह इतनी गवली हो गयी हैं। यदि वह लड़के की माँ बन जाती तो हमें भूनकर ही खा जाती । सन्निधान को स्त्रियों की चाल मालूम नहीं पड़ती; समझ में नहीं आती। सबने मिलकर मेरे विषय में सन्निधान की दृष्टि को ही बदल दिया है। मैं कंवल नाम के वास्ते पट्टमहादेवी हूँ। पर सबके पैरों की धूल बनी हूँ। ऐसा जीवन जीने मे मरना अच्छा। स्वार्थ मुझे अकेली में है दूसरों में नहीं? स्वार्य, मुझमें इस स्वार्थ को जगानेवाले कौन? मुझे पीठ पीछे बाँझ कहकर किमने अपमानित किया? सन्निधान की ऐसे ही लोग ठीक जँचते हैं। वही हो। मैं बाँझ रहकर ही समाप्त हो जाऊँगी। स्वयं तृप्त करने के व्याज से सन्निधान को यहाँ ठहराने की मेरी इच्छा नहीं । सन्निधान को भी मुझ जैसी तृप्ति और सन्तोष हो इसलिए मैंने निवेदन किया था। मैं सन्निधान को किसी भी तरह से रोकनेवाली नहीं हूँ। जहाँ इच्छा हो सन्निधान वहाँ विहार कर सकते हैं।" कहकर पद्मला यहाँ से उठकर प्रकोप्ट का दरवाजा खोलने को उद्यत हुई ।
उसकी मनोवृत्ति को समझनेवाले बल्लाल स्वयं उठकर उसे रोककर बोले, " जल्दबाजी में कुछ अनहोनी कर बैठने में तुम अपनी माँ के ही बराबर हो - ऐसा ही लगता है। यों बड़बड़ाकर बात करना ठीक नहीं। आओ ।" कहकर उसे जबरन
37-1 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो