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ऊँचा स्थान यहाँ मिला है। इससे बढ़कर ऊँचा स्थान मुझे कहीं नहीं मिलेगा। मैं। सरस्वती का आराधक हूँ। एक भाषा भाषी लेने काम की मीपारेका ने अलगाव की भावना उत्पन्न करके कर्नाटक सरस्वती को खण्डित किया है। मेरी आकांक्षा और कुछ नहीं, केवल उस पुरानी समरसता को फिर से प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न करना मात्र है। उस छोर से ही प्रस्तावित कराने का बत्न करना, और पोयसल राष्ट्र के आत्मगौरव को क्षति न पहुँचे इसका ध्यान रखना-यही मेरा उद्देश्य है। अनुमति देकर अनुग्रह करें।" । ___ "आपकी भावना अचही है लेकिन वह किस तरह पुरस्कृत हो, कहा नहीं जा सकता।" कहती हुई शान्तलदेवी ने अपने स्वामी की ओर देखा।
"कन्तिदेवी की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कविजी वहीं रहें तो अच्छा, यह इमारी अभिलाषा है।" विडिदेव ने कहा।
"विद्याभ्यास कराने के लिए राष्ट्र-भर में अनेक योग्य ज्ञानी, विद्वान पुरुष हैं। कवि योकिमया को चलुगोल से बुला सकते हैं। बड़े निष्णात कवि मौक्तिक जी भी यहीं हैं। सुमनांवाण जी भी हैं। और भी अनेक जन हैं। यही कष्ट नाम जो सूझे मैंने निवेदन किये।
"तो मतलब य: कि कविजी ने पहले से निश्चित करकं वह सताह हमार सामने पेश की है?" विङ्गिदेव ने पूछा।
“सन्निधान के सामने केवन समय काटने के लिए बात करना सम्भव हो सकता है?" नागचन्द्र ने की। ___ "पोय्सलों को यदि आपके मन की यह समरसता की भावना अवांछित हो तो?" बिट्टिदेव ने फिर प्रश्न किया।
"यह तो सवाल करने के इरादे से किया हुआ सवाल पात्र है; यह अन्तरंग से निकला विचार नहीं होगा। मेरी यह निश्चित धारणा है कि सन्निधान और पट्टमहादेवी के हाथ में जब तक राज्य-संचालन सूत्र हैं, पोयसल राज्य में समरसता को न चाहने की बात सही नहीं सकती।" __“राजनीति में धारणाएं कभी निश्चित रूप नहीं ले सक्री, कविजी। राष्ट्रकूट कौन हैं? चालुक्य कौन हैं? दोनों कनाटक सरस्वती की ही सन्तान हैं न उन्हें दबाकर वे ऊपर नहीं उठे ? इसलिए पोसल भी चालुक्यां को दबाकर ऊपर उठना चाहते हैं शायद इस मनोभाव से प्रेरित होकर उन्होंने अपने विचारों में परिवर्तन किया है। हम पर जग्गदेव को हमला करने के लिए भेजकर हमारी शक्ति को परीक्षा भी उन्होंने ले ली। इसलिए यह सम्भव नहीं कि ये इस तरह के सन्धान के लिए तैयार हों। ऐसी स्थिति में दोनों राष्ट्रों में समरमता कैसे आ सकती है?" विट्टिदेव ने का।
38J8 :: पमहादेवी शान्तला : भाग टो