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के सहज आत्मीयता बढ़ानेवाला आकर्षक व्यक्तित्व रखती हैं।"
"पतलब यह कि पट्टमहादेवी की आत्मीया बन गयी हैं। यही न?" "उन्हें अब प्रथमतः पोसल राष्ट्र की आत्मीयता चाहिए।' "तो उनकी सभी मनोकामनाओं की सिद्धि के लिए आश्रय पटला करा
"उनके पोयसलों की उदारता के विषय में स्पष्ट विचार हैं। निष्ठा के साथ रहने पर सभी वांछार पूरी हो सकती हैं-वे इस बात को समझती हैं, इसलिए उन्हें आश्रय आवश्यक है।"
"वे आश्रय की पात्र हैं?" "यह मेरी अकेली की राय पर निर्भर नहीं है न?" "कल मन्त्रिपरिषद् पट्टमहादेवी के वचन को स्वीकृति दे दे तो?"
"आश्रय देने के विचार से ही उन्हें राजमहल में छोड़ जाने की सलाह मैंने सबारनायक अनन्तपाल को दी थी।'
"टीक है, हम भी यही चाहते थे।" 'यहाँ, इससे भी कुछ अधिक हैं।'' "मालमा
"इस सम्बन्ध में अभी नहीं, जब समय आएगा तब बताऊँगी। अब आज्ञा दें। विट्टिगा की पढ़ाई समाप्त कर आने का समय हो गया है। बच्चों के उपाहार की व्यवस्था करनी है।"
"क्यों? नौकर नहीं हैं।" ___ "हैं क्यों नहीं? पर वे मां तो नहीं बन सकते।" कहकर उत्तर की प्रतीक्षा किये विना शान्तलदेवी चल पड़ीं।
बिट्टिदेव के मन में उस दिन सम्भावित कथित-अकथित सभी विचार उठ खड़े हुए। कई विचार जैसे मन में उठे वैसे ही विलीन हो गये। क्या पट्टमहादेवी का कथन सच है? उस दृष्टि से हम आकर्षित हुए? कैसी विडम्बना है! विचार-विमर्श करते समय कभी दृष्टि उधर गयी तो उसका अन्यथा अर्थ लगाना ठीक है? पता नहीं क्यों, आज का यह चिन्तन ही कुछ-कुछ ठीक नहीं रहा। एक सहजता नहीं थी उसमें। सब-कुछ अस्त-व्यस्त उड़ता-उड़ता-सा। देवी के उपस्थित रहते ऐसा क्यों हुआ? न, अकेले सोचते थे, तो दिमास खराब हो जाएगा।
उन्होंने घण्टी बजायी। रेविमव्या पर्दा हटाकर अन्दर आया। "रेविमय्या! प्रधानजी, मन्त्रीगण और दण्डनाथ-इनसे कहो, वे मन्त्रणागृह में आएँ। हम भी बच्चों के साथ उपाहार लेकर वहीं पहुंच रहे हैं। बिट्टिगा आ गया?" __ "हाँ।" कहकर रेविषय्या आदेश का पालन करने चला गया। बच्चों के साथ
424 :: पमहादेवी शान्तला : भाग दो