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विचार आ-जा रहे थे। संयम से रहने का प्रयत्न करने पर भी बिहिदेव के सामने पहले की-सी सरलता बरती नहीं जा सकती थी। इसकी जानकारी भी उसे थी । इसलिए उसे मन ही मन यह लग रहा था कि बिट्टिदेव के दर्शन पास से नहीं, दूर से ही करना उत्तम है।
राजलदेवी ने अपने मन में किसी आशा की कल्पना नहीं की। अनेक वर्षो से परिचित होने के कारण बम्मलदेवी को यह अच्छी तरह समझती थी। उसे लग रहा था कि उसके दिल में कुछ हलचल है। उसका आभास मिलते ही समय नष्ट किये बिना सीधे बम्मलदेवी से पूछ बैठी। उसने राजलदेवी से कभी किसी बात को छिपाये नहीं रखा था, इसलिए उसने दिल खोलकर कहा, "मेरी समझ में नहीं आता, बहिन। मुझे लग रहा है जैसे मेरा मन महाराज में लीन होता जा रहा है।" • महाराज को पात से जो भी देखता है उसे ऐसा ही लगता है ।" राजलदेवी
बोली ।
"ती क्या तुम्हें भी कुछ ऐसा ही लगा?" बम्मलदेवी ने
पूछा I
"तुम्हारी या मेरी ही तरह अनेकों को ऐसा ही लगता है, बहिन । उनका रूप ही ऐसा है ।" मानो उसके अन्तरंग की बात ही बाहर व्यक्त हो गयी ।
“परन्तु ऐसी अभिलाषा तो आकाश-कुसुम ही है नर महाराज और पट्टमहादेवी का दाम्पत्य एक आदर्श दाम्पत्य है। उनके उस आदर्श जीवन में किसी का प्रवेश अधक बन सकता है।"
“वे केवल पारिवारिक गृहस्थी चलानेवाले हों तो तुम्हारे कहे अनुसार हो सकता है। मन्त्री और दण्डनायक जैसों के भी अनेक पलियाँ जब हो सकती हैं ती महाराज की अनेक पालियाँ हों इसमें ग़लती ही क्या है? उनके उस पद के लिए तो वह प्रतिष्ठा ही की बात होगी ?" राजलदेवी ने प्रश्न किया ।
"वे दूसरे राजाओं के जैसे नहीं। उनके जीवन की रीति-नीति रेविमच्या से सुन चुकने के बाद, और चहलदेवी से दिवंगत महाराज की रानियों द्वारा एक माँ की पुत्रियाँ होकर भी, राजमहल को भयंकर झगड़ों और विद्वेष की भावनाओं से नरक बना देने की बात तथा शान्तलदेवी ने कैसे-कैसे प्रयत्न किये और समरसता लाने के लिए कितना श्रम किया आदि बातों को सुनने के बाद भी - कौन होगी कि उनके ऐसे आदर्श जीवन में बाधा डालना उचित समझेगी ?"
"दीदी आपकी बातों को सुनकर मुझे ऐसा लगता है कि आप अपने मन के विरुद्ध बातें कहकर स्वयं को बंचित कर रही हैं। उन दोनों का परस्पर प्रेम ऐसी कमजोर नींव पर स्थित है? ज्ञाननिधि पट्टमहादेवी इस बात को नहीं जानतीं कि 'राजानो बहुवल्लभा :: आप ऐसी निराश होकर अपने व्यवहार में सशंक मत हो। आशावादी बनकर सरल सहज रीति से व्यवहार करती रहें। अवसर मिलने
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो : 127