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दिलचस्पी भी स्पष्ट दिख रही थीं।
महामातृश्री और शान्तलदेवी उनके उस उत्साह को सपझ रही थीं। उन दोनों के मन में अकारण ही कई तरह के विचार उत्पन्न होने लगे परन्तु उन्होंने उन्हें अपने तक ही सीमित रखा।
एक क्षण भी व्यथं न गँवाकर लगातार काम करने से महाराज और पट्टमहादेवी के अश्यों के अंगवाण और शिरस्त्राण, बम्मलदेवी की सलाह के अनुसार निश्चित मुहूर्त के पूर्व ही तैयार हो गये। इससे महाराज की युद्धयात्रा राजमहल के ज्योतिषियों द्वारा निश्चित मुहूर्त में ही आरम्भ हुई। महाराज बिट्टिदेव पट्टमहादेवी शान्तला, बम्मलदेवी, चट्टला और रेविमय्या-इन सबके साथ अश्वसेना का एक गुल्म दक्षिण-पश्चिम कोने के सैन्यशिविर की ओर चल पड़ा। मार्ग में दो दिन ज्यादा टहरकर यादवपुरी जाकर विश्राम किया। शान्तलदेवी ने कहा, "इस युद्ध की समाप्ति पर सन्निधान कुछ समय बादवपुरी में ही मुक्काम करें तो अच्छा है। उदयादित्य द्वारसमुद्र में ही रहे आएँगे।"
क्यों, देवीजी को वेलापुरी और दोरसमुद्र जंचे नहीं?"
"ऐसा नहीं जो हारेंगे व फिर अपना बल बढ़ाकर हमले की तैयारी करने की कोशिश करेंगे। सन्निधान यहीं मुक्काम करेंगे तो शन के लिए. डर बना रहेगा।
''हाँ, हम यहाँ रहें और उधर चालुक्य दोरापुद्र की ओर आ बढ़ें, तब?"
'अब आने पर जैसा होगा, तब भी वही होगा। हम उसकी रक्षा के विषय में उदासीन तो नहीं हैं न: राज्य की रक्षा के लिए, पोसलों के पुण्य प्रभाव से दक्ष टण्डनायक सभी तैयार हो रहे हैं। प्रधान गंगराज के पुत्र एचिराज ओर बोप्पदव, अब तो उदयादित्य वहीं हैं-ये सब गंगराज, माचण, डाकरस, मामा सिंगिमच्या, पुनीसमय्या के स्तर को पा गये हैं। मंचिदण्डनाथ एक नयी शक्ति बनकर सम्मिलित हुए हैं। कुमार बिट्टियण्णा, डाकरस के बेटे मरियाने और भरत अपने- अपने बुजुर्गों से भी अधिक शक्ति-सामर्थ्य से सम्पन्न हो रहे हैं। कुमार बल्लाल भी शीघ्र ही एक निपुण योद्धा हो जाएगा। राष्ट्र-रक्षा का कार्य चोग्य एवं दक्ष हाथों में है। इसलिए सन्निधान प्रत्येक केन्द्र में भी याद कुछ समय रहेंगे ता सम्पूर्ण राज्य में महाराज के सान्निध्य के प्रभाव से नवीन चेतना उत्पन्न होगी। इसी दृष्टि से इस युद्ध की समाप्ति के बाद कुछ समय तक सन्निधान नहीं मुक़ाम करें-मेरी ऐसी अभिलाषा हैं।" शान्तलदेवी ने कहा।
वहीं हो। तुम्हारी सलाह योग्य है। इस युद्ध के बाद सब एक बार वेलापुरी में मिलेंगे। आगे सुरक्षा-व्यवस्था के विषय में एक नयी योजना भी तो बनानी
116 :: पट्टमहादेची शान्तला : भाग दो