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ऐसा नहीं बम्पलदेवी जी, आपकी बात आपकी दृष्टि में टीक होने पर भी, . लौकिक गति का उल्लंघन करना हमारे लिए उचित नहीं। अगर आप राजपरिवार के आश्रित न होती तो आपको अपनी इच्छा अनुसार करने के लिए छोड़ा जा सकता था। आपमें आत्मविश्वास है। आप अकेली ही आएँ तो भी कोई बाधा नहीं हो सकती। फिर भी आपको अकेली छोड़ नहीं सकतीं। चट्टालदेवी का साथ कर देना एक विकल्प हैं। लाचारी हुई तो वहीं करना पड़ेगा। किसी भी तरह से कल रवाना होने के समय तक उन्हें तैयार करवा देने की ही कोशिश करें।" शान्तलदेवी ने यह निर्णय सुना दिया।
बम्मनदेवी दोनों को प्रणाम कर वहाँ से चली गयी।
उसके चले जाने के बाद बिट्टिदेव ने कहा, ''तो देवी ने जाने का निर्णय लें ही लिया है।'
'क्यों, सन्निधान को सन्देह था ? या सोचा हो कि शान्तला न जाए तो ठीक रहे।" शान्तलदेवो ने प्रश्न किया ।
"हमें दोनों स्वीकार। परन्तु पट्टमहादेवों ने कहा कि विमच्या महामाश्री से वात कर आए, तब अन्तिम निर्णय करेंगे। इसलिए पूछा।" विडिदेव बोले । ___"मुझे रबिमय्या की रीति मालूम है। महामातृश्री के मन को भी जानती हूँ। इसलिए मैं समझती हैं कि मेरी यात्रा के विषय में कोई रोकटोक नहीं।" शान्तलदेवी बोली।
इतने में रेविमव्या आ गया। शान्तलदेवी ने पृष्टा, 'रेविमय्या, महामातृश्री ने क्या कहा?"
मुझसे पूछा तो नहीं, केवल इतना ही कहा कि सन्निधान और आपकी दोनों की सुरक्षा का सदा खयाल रखना।"
"यह तो कोई नयी बात नहीं।' बिट्टिदेव बोले।।
"तो महामातृश्री का तुम्हें बुलाने में कोई खास उद्देश्य नहीं रहा?" शान्तलदेवी ने पूछा।
बिना किमी उद्देश्य है वे बलानेवाली नहीं .. यह लो सन्निधान को विदित ही हैं न?'' रेविमथ्या बोला। ___ 'तो सुरक्षा के विषय में चौकन्ना रहने के लिए जो कहा वह साधारण बात होने पर भी अब इस वचन की अघ-व्याप्ति कुछ विस्तृत हैं-यही समझा जाय।" यों कह शान्तलदेवी ने बात को कुछ व्यापक बनाया।
"यों सोचना भी गलत न होगा। क्योंकि सम्भाव्य की कल्पना करके पहले से सचेत रहन की प्रवृत्ति राजमहल की दृष्टि में बहुत ही बुक्तिसंगत है।" रविमच्या बोला।
-144 :: बट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो