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"तो मतलब यही कि सन्निधान के मन में शंका है। घुमा-फिराकर बात करने का ढंग ही इस बात की गवाही दे रहा है। पट्टमहादेवी इस बात की स्वीकृति दगी या नहीं इस तरह की शंका यो शंका-सी नहीं लगती, फिर भी सच तो यह है कि पट्टमहादेवी पर शंकित होने का मतलब सन्निधान का ख़ुद पर ही अविश्वास करना होगा।'
“मतलब?"
''मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह किसी दुविधा में फंसता है तो वह द्वन्द कहाँ क्या है-यह न देख किसी तीसरे की सम्भावित कल्पना कर चिन्ता में पड़ जाता है।
"अभी द्वन्द्ध का कारण ही क्या है?" "कारण न होता तो माँचदण्डनाथ की सूचना को सीधी कह सकते थे।"
इतने में नौकरानी बम्मला ने किवाड़ खोला। महाराज को देख कुछ लाज्जत-सी हो गयी।
"क्या है बम्मला, बमलदेवी आ गयी"
''बाहर आदेश की प्रतीक्षा में खड़ी है। सन्निधान का वहाँ आना मालूम नहीं पड़ा। क्षमा करें।" बम्मला ने झुककर प्रणाम किया।
“उन्हें भेज दो।" बिट्टिदेव ने कहा।
नौकरानी बम्मला चली गयी। उसके आते ही बम्मलदेवी ने प्रवेश किया। बम्मला किताड़ बन्द कर बाहर रही।
प्रणाम करने को तैयार बम्मलद्धेवी बिट्टिदेव को वहाँ देख कुछ हिचकिचा गयी। उसे यह कल्पना नहीं थी कि ये वहाँ होंगे। वैसे वे उसके लिए नये तो नहीं। उस क्षणिक हिचकिचाहट को दूर कर उसने उन्हें प्रणाम किया।
शान्तलदेवी ने आसन दिखाते हुए कहा, ''आइए बैंठिए।" बम्मलदेवी बैट गयी, लेकिन उसकी दृष्टि विट्टिदेव की और रही। 'देख आयीं सब" शान्तलदेवी ने पूछा । "हाँ।" "काम सन्तोषजनक चल रहा है: शान्तलदेवी ने फिर प्रश्न किया।
'सन्निधान के घोड़े के लिए जैसा लौह-कवच और शिरस्त्राण बनाने के लिए सूचित किया गया था वह उतना सन्तोषजनक नहीं बना था, इसलिए उसमें आवश्यक परिवर्तन करने का बतला आयी।"
"सभी घोड़ों के लिए एक ही तरह के बनते, वही काफ़ी था। उनका उद्देश्य शस्त्राघात से घोड़ों को बचाना ही तो है। हमारा घोड़ा अलग, दूसरे का अलग । इस तरह की विवेचना क्यों की गयी.'' बिट्टिदेव ने पूछा।
412 :: पट्टमहादेवी शान्नला : भाग दो