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भगवान कभी कोई ग़लती नहीं करता-इस तरह का दृढ़ विश्वास मन में स्थिर होने पर, निराशा के लिए कोई कारण नहीं रह जाता। इच्छा करना पानव का स्वभाव है। उन-उन के लक्ष्यों के अनुरूप उसकी इच्छा जाग्रत होती है। उसकी उस इच्छा की सफलता भगवान की कृपा होगी तो होगी, नहीं तो नहीं। सफलता म मिले तो यहीं समझना चाहिए कि इच्छा या तो असाधु थी या फिर समयोचित नहीं थी। ऐसा विचार आने पर निराशा के लिए गुंजाइश ही कहाँ बेटी?"
चलदेवी ने कहा। ___"तो क्या समर्थ आत्म-विश्लेषण ही विश्वास का दूसरा पहलू है " बम्मलदेवी ने कहा।
"नहीं 'बेटी, वह विश्वास रूपी वृक्ष पर लगनेवाला कोंपल है। वहाँ निराशा के लिए स्थान नहीं। वह नूतन जीयन के लिए नान्दी है-नव-जीवन की ओर पहला क़दम । दृढ़ विश्वास रखनेवाला जीव उसकी जड़ है। पत्तों के झड़ जाने पर वृक्ष यह समझकर कि वह टूट हो गया-दुःखी नहीं होता। नये कोंपलों से अपने अंग-अंग भरकर नयी शोभा से नवीन रूप धारण कर हरा-भरा बन जाता है। मानव का जीवः: सा ही होता है, और होना ही चाहे।"
"तो महामातृश्री का यही भाव है कि अपनी सन्तान में अपने को ही देख पाना है, है न? इसलिए उनकी भलाई के लिए विनती की, है न?"
'हाँ बेटी, स्त्री प्रकृति का प्रतीक है। अपनी सन्तान के श्रेय से बढ़कर उसके लिए दूसरी कोई चाह नहीं। तुम्हें भी ऐसी अनुभूति कर सकने का समय शीघ्र आए, राजलदेवी को भी आए। वासन्तिकादेवी आपकी अभिलाषाएँ पूरी करें।" ___ "अपनी अभिलाषाएँ प्रकट करने की स्वतन्त्रता हमें हैं ही कहाँ ?"
"हाँ तो, मंचिदण्डनाथ युद्ध में गये हैं। उनके लौटते ही मैं उनसे कहूँगी कि आपकी अभिलाषा पता लगाकर उसे पूर्ण करें।" एचलदेवी ने कहा।
“सुरक्षित लौट आएँ इसके लिए हमने भगवान से प्रार्थना की है।'' बम्पलदेवी ने कहा।
इतने में रेविमय्या अन्दर आया। झुककर प्रणाम कर बोला, "सन्निधान महामातृश्री से मिलना चाहते हैं।"
वम्मलदेवी और राजलदेवी ने भी उठकर प्रणाम किया और पहामातृश्री से अनुमति लेकर आपने-अपने प्रकोष्ठ में चली गयीं। रेविमथ्या भी स्वीकृति पाकर चला गया।
कुछ ही क्षणों में महाराज बिट्टिदेव महामातश्री के पास पहुँचे। रेविमय्या, जो साथ ही आया था, महाराज के अन्दर जाने के बाद किवाड़ बन्द कर बाहर खड़ा रहा।
136 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो