Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 2
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 431
________________ न! इसलिए सफलता भी मिलो। अन्यथा आपका प्रयत्न व्यर्थ होता। लेकिन आपका प्रयत्न सफल हुआ। पीसलों की उदारता इसमें देखी गयी। यदि असफल हुए होते तो पोसलों के प्रति आप लोगों के मन में पता नहीं कौन-सी भावना होती-कह सकती हैं: "नहीं।" "इसलिए निर्णय करनेवाले स्थान पर जो बैठते हैं वे चाहे कितने ही औदार्य से बरतें या न्याय-निष्ठुर होकर यहा करें, उसमें कम-न-कुछ आशा-निराशा, तृप्ति-असमाधान, स्नेह-द्वेष आदि के लिए जगह रहती ही है। व्यक्त रूप में न सही, अव्यक्त रूप से ही, किसी-न-किसी रूप में विरोध रहता ही है। इसलिए भगवान से हमारी बही विनती हैं-हे भगवान! ऐसे विरोध से हमारी रक्षा करो।" एचलदेवी ने कहा। ____ "हमारी राय में तो, स्वच्छ और निष्कपट हृदयवाले इन सजवंशियों के विषय में इस तरह के विरोध के उत्पन्न होने की सम्भावना ही नहीं। जब कभी ऐसे विरोध के उत्पन्न होने की सम्भावना हो तो उसे वहीं तत्काल पता लगाकर बता सकनेवाले दक्ष गुप्तचरों की पोयसल राज्य में कमी नहीं। ऐसी दशा में विरोध कभी कहीं सिर भी उठा सकता है?" बम्मलदेवी ने सम्मान भाव प्रदर्शित करते हुए कहा। __"यों समझकर धीरज के साथ चुप बैठे कैसे रह सकेंगे, बेटी । महाटण्डनायक मरियाने ने अपने किसी एक रिश्तेदार को अपनी बेटी को व्याह देने से इनकार कर दिया था तो उसने मेरे बेटे को ही मार डालने का षड्यन्त्र रच डाला था।' एचलदेवी ने कहा। ''चट्टलदेवी की होशियारी और सजगता से तब वे और ये दोनों महाराजों के प्राण बच गये थे न?' बम्मलदेवी ने कहा। "ओह, तब तो ये सारी बातें आपको भी मालूम है! ठीक है। यह मानब की सजगता और होशियारी प्रतीत होने पर भी उसके पीछे भगवान की इच्छा और कृपा भी रही है। इसलिए मैं प्रार्थना को अधिक महत्त्व देती हूँ। सबसे बढ़कर मानसिक शान्ति प्रार्थना से ही मिलती है। भगवान सुने न सुने, तब भी बह प्रार्थना हमारी मानसिक शान्ति के लिए सहायक बनती है।' एचलदेथी बोली। ___“महामातृश्री की बात हमारी समझ में नहीं आती। इष्टार्य-सिद्ध न होने पर निराशा के कारण क्रोध आएगा ही। ऐसी स्थिति में शान्ति मिले तो कैसे?'' "जिसे अनुभव नहीं है उसे निराशा के कारण गुस्सा आता है, बेटी। हमारी अस्थिरता का फल ही तो है यह निराशा। भगवान भी हम मनुष्यों की तरह ग़लती करता है-ऐसी धारणा बनने का कारण है हमारे भीतर दृढ़ विश्वास की कमी। पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 495

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