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"कर्नाटक भाषा-भाषी जनता की संस्कृति इतनी उदात्त है कि उसने सटा ही समरसता चाही हैं। जब जनता समरसता चाहती है तब राजकाज सँभालनेवाले राजवर्ग को वह स्वीकार करना होगा नः सन्निधान मुझे एक मौका दें। यदि अपने प्रयत्न में मैं असफल भी हो जाऊँ तो मैं दुःखी न होऊँगा। इस बात की तृप्ति तो रहेगी कि मैंने एक उत्तम कार्य के लिए प्रयत्न किया।"
"ठीक हैं, आपके निर्णय में हम बाधक नहीं बनेंगे । आप स्वतन्त्र हैं। आपका संकल्प सफल होता है तो हमें भी सन्तोष होगा। किन्तु आप कोई ऐसा विचार न रखें कि अपनी संकल्प-सिद्धि के लिए जिस कार्यनीति का आप अनुसरण करेंगे उसके लिए आपको पोयसल राज्य का प्रतिनिधित्व प्राप्त है। बल्कि आप ऐसा मान सकते हैं कि आप पर हमारा विश्वास होने से इस कार्य के प्रति हमारी सहानुभूति हैं।'' कहकर बिट्टिदेव ने शान्तलदेवी की ओर देखा।
__"कविजी का विश्वास है कि काँटा करवान से भी अधिक बलवान है। इसलिए वे जिस विचार को लेकर प्रयोग करने जा रहे हैं, इसके लिए राजप्रतिनिधित्व काटा ही बन सकता है. -सन्निधान का सोचना ठीक है। कविजी, पोसल राज्य सुदृढ़ नींव पर स्थित होकर जनता के हित के लिए प्रगति करे-इसी ध्येय को लेकर आप राजगुरु बनकर अब तक दीक्षाबद्ध रहे। आपकी निर्दिष्ट नीति उस लक्ष्य तक पहुँचे-चही आशीर्वाद दें।''
“पट्टमहादेवी जी, मैं चाहे जहाँ भी रहूँ, चाहे जैसा रहूँ, मेरी यही कामना रहेगी। मैं हमेशा चाहता रहूँगा कि पोयसल कीर्तिवान हो। मैं आज जो कुछ भी हूँ, यह इसी राष्ट्र के कारण हूँ। इसलिए यदि मैं इस बात को भूल जाऊँ तो निश्चित ही कृतघ्न कहलाऊँगा। आज्ञा दें।" कहकर नागचन्द्र ने दोनों हाथ जोड़े।
उन दोनों ने प्रतिनमस्कार किया और कहा, “अच्छा, कविजी।"
कन्तिदेवी को उनके गन्तव्य स्थान की जानकारी के बिना ही विदा करना पड़ा। दरार को पाटने का ध्येय लेकर कवि नागचन्द्र चालुक्य राज्य की ओर प्रस्थान कर गये। कहाँ जाकर ठहरेंगे, इसकी जानकारी उन्हें भी नहीं थी।
सारस्वत लोक के दोनों चमकते सितारे राजधानी से दूर हो गये।
बिट्टिदेव और शान्तलदेवी दोनों इस तरह से अनिरीक्षित रूप से प्राप्त राज्य को शक्ति-सम्पन्न बनाने की ओर विशेष ध्यान देने लगे। तुरन्त किसी और से युद्ध छिड़ने की सम्भावना न दिखने पर भी, आगे चलकर यदि संग्राम छिड़ जाय तो ऐसी परिस्थिति के लिए सब तरह से सन्नद्ध रहने के बारे में मन्त्रिमण्डल में विचार-विमर्श करने के उपरान्त, सैनिक शक्ति को बढ़ाने के लिए कार्यक्रम
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 399