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कं पुख के भाव इस तरह क्यों हुए- यह बात उनकी समझ में नहीं आयीं। वे भी कुछ देर सोचते बैठे रहे। मौन छाया रहा।
बहुत ही मुख्य प्रश्न पर विचार करते वक्त यों अचानक इस मौन से मंचिदण्डनाथ कुछ पलड़ा गये। राजनीतिक परिस्थितियाँ कब किस तरफ़ करबर ले लें कौन जाने ? इस समय इस मौन को तोड़ने की इच्छा से उसने कहा, ''तो क्या चक्रवतों के मन में सन्निधान के विवाह के समय पहले जैसा मैत्रीभाव आ गया था? क्या उसके बाद ही किसी कारण से उनमें असन्तोष की भावना पैदा हुई:'' उनका प्रश्न था।
"नहों, प्रभु के सिंहासनारोहण समारम्भ को सम्पन्न करने के लिए उनसे अनुमति नहीं ली गयी...इससे उनको असमाधान हो गया था। वहीं बढ़ते-बढ़ते इस स्तर तक आ पहुंचा है। जब कभी उस पुराने स्नेह की चाद हो आती है। कितना स्नेह था। कल ..! वर माही गिनः रहा होता! आदि आदि वेिचार मन में उठ
आने हैं-सन्निधान के कहने का यही तात्पर्य है। उह, अव वह सब पुराना किस्मा हो गया। अब सोचने से क्या फ़ायदा इसीलिए सन्निधान मेरी बात पर हँस पड़े।" शान्तलदेवी ने कहा।
"हमेशा अच्छाई ही की इच्छा रखनेवाली हमारी पट्टमहादेवी जैसा विशाल मनाभाव विक्रमादित्य चक्रवर्ती में नहीं है यह स्पष्ट हैं; ऐसी हालत में एक कांवे की बात को मान्यता मिलेगी ऐसा पानना व्यर्थ है। हमें लगा कि जो साधा नहीं जा सकता उसी को पट्टमहादेवी चाह रही हैं। इस स्मिल कहने के बदले, चातुक्य चक्रवर्ती के बारे में एक गंग्य ही समझें -यह मैं स्वयं कहता हूँ। वो कहते हरा हमें संकोच भी नहीं होता। अच्छा उस बात को जाने दीजिए। उससे अब हमारा कोई प्रयोजन नहीं। ऐसा उन्होंने क्यों किया है--इसकी खबर हमारे गुप्तचरों से
मालूम हो ही जाएगी। उनसे खवर पाने से भी पहले हममें जानने की इचछा उत्पन्न i हुई- इस वजह से यह सवाल उठा। अन समझ लीजिए कि आप हममें मिल गये।
कैसे, क्या और किधर आदि बातों पर बाद में विचार हो जाएगा। वह तो रहस्य बनकर रह नहीं सकता। अन्यथा वही होता कि हमने चालुक्य चक्रवर्ती के साध के विद्वेष को स्थायी बना रखा है। है न?"
"सन्निधान हमें उकसाकर उधर से इधर ले आये। यही न?' बम्मनदेवी ने कहा।
"देवीजी घोड़ों की परीक्षा में निष्णात हो सकती हैं, परन्तु मनुष्यों की रीत शायद उतनी अच्छी तरह भालूम न पड़ी होगी।" विट्टिदेव बोले।
"मुझसे कोई ऐसा अविवेक बन पड़ा जिससे सन्निधान की ऐसी सब हुई ?" कुछ कुतूहल से बम्मलदेवी ने पूछा।
420 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो