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"न, न, हमने एक सामान्य बात कही। पटभद्रों के अधिकृत हिताभिलाषी जनों की बात समझना कठिन है इसी विचार से हमने ऐसा कहा। परमार भोज नं चालुक्यों पर हमला किया था. इसका कारण पालम है आपो" लिटिदेव ने पूछा।
"वह शत्रुता लो मुंज के समय से ही बढ़ती आयी है।"
"लोगों की आँखों में धूल झोंकने के लिए यही कहा जाता है। वास्तव में उसकी जड़ में कारण यह है कि चन्दलदेवी ने विक्रमादित्य से विवाह किया।"
"वहाँ असूया हो सकती है। लेकिन यहाँ तो ऐसा कुछ नहीं हैं न? चक्रवर्ती ने जिसे चाहा, ऐसी किसी कन्या ने सन्निधान के गले में माला पहना दी हो, ऐसा तो है नहीं।” बातचीत के उद्वेग से चप्पलदेवी ने संकोच तोड़कर ऐसा कुछ कह दिया और तुरन्त होठ काटने लगी। न चाहते हुए भी उसकी दृष्टि शान्तलदेवी की ओर चली गयी।
केबल बम्मालदेवी की ही नहीं, मचिदण्डनाथ और बिट्टिदेव की भी दृष्टि शान्तलदेवी की और चली गयी थी।
बम्मलदेयी ने जब वहाँ से ध्यान हटाकर सबकी ओर देखा तब उसे मालूम दुआ कि सबकी दृष्टि उस ओर लगी है। यह सब क्षण भर में हो गया।
मचिदण्डनाथ ने बात बदलने के विचार से कहा, 'अभी तो हम बुद्ध के बारे में चर्चा करने बैठे हैं। विवाह का विषय नहीं है।"
"दण्डनाथ जी को तो सदा ही युद्ध की बात पहले। परन्तु, पल्लवकुमारी के हाथ माला लिये खोज कर रहे हैं कि उसे किस गले में पहनाएँ। यह उनकी आयु का परिणाम है। अन्तरंग के भाव किसी समय इस तरह निकल ही पड़ते हैं। है न बम्मलदेवी जी :" कहते हुए शान्तलदेवी ने उसकी ओर देखा।
उसने लज्जा के कारण आँखें नीचे झुका लीं। मौन रहने पर भी उसके मन का भाव चेहरे ने व्यक्त कर दिया। बिट्टिदेव ने भी उसकी ओर देखा।
पल्लवकुमारी का चेहरा रक्तिमायुक्त मन्दहास से विराज रहा था। शान्तलदेवी की ओर वह देखना चाहती थी। इस प्रयत्न में उनकी दृष्टि शान्तला के बदले विष्टिदेव की ओर चली गयी। दोनों की आँखें जा मिली।
"अगर यह कार्य सम्पन्न हो जाय तो मैं अपने को धन्य मानूंगा, महारानी जी। इसमें मेरा अपना कुछ नहीं है। बम्मलदेवी और राजलदेवी मेरी औरस पुत्रियाँ नहीं, अपने बच्चों की तरह मैंने उन्हें पाला-पोसा है। इनका विवाह हो जाय तो मैं धन्य हो जाऊँगा।" मंचिदण्डनाथ ने कहा।
__ "हमारी पट्टमहादेवी का आश्रय लीजिए। आपका काम आसानी से बन जाएगा।' बिट्टिदेव बोले ।
पट्टमहादेवी शामला : भाग दो :: 42]