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को महत्त्व देना क्या संगत हैं?" नागचन्द्र ने कहा।
"आत्मगौरव रहित राष्ट्र, राष्ट्र बनकर नहीं रह सकता, कविवर्य ।” "बड़े लोगों से छोटे लोग पूछ लें तो इसमें कोई ग़लती नहीं दिखती।"
"बड़े कौन छोटे कौन? चालुक्य बड़े और पोयसल छोटे-यहीं आपका विचार है?'' शान्तलदेवी ने सवाल किया।
"राष्ट्र के विषय में मैंने नहीं कहा। जगदेकमल्ल हमारे महाराज से बड़े और हमारी पट्टमहादेवी से पिरियरसी जी बड़ी हैं-इस वैयक्तिक सम्बन्ध को लेकर मैंने कहा है।"
'व्यक्ति बनकर सामने खड़े हों तो हम दोनों उनके चरण भी छुएंगे। परन्तु पोयसल राष्ट्र का सिर झुकने पर सन्निधान राजी नहीं होंगे।' शान्तलदेवी ने कहा।
"तो क्या मैं नहीं समझा कि दोनों राष्ट्रों में समरसता नहीं हो सकेगी"
"हम कभी ऐसा नहीं कहेंगे। समरसता का होना तो बहुत अच्छी बाल हैं। इस दिशा में हम खुले दिल से बरतेंगे।"
''हमारे ऐसे विचार हैं इस बात की जानकारी उनको होनी चाहिए न?" "हमारे इन विचारों को जानना उनका काम है।'' 'अनुमति दें तो मैं यह काम करूं।'' "पोसलों के सन्धिविग्राहक बनकर जाना चाहेंगे?" ।
वह बहुत बड़ी बात होगी। मैं केवल बुद्धिजीवी हूँ | महाकवि पप्प या रत्न की तरह तलवार हाथ में लेने की सामर्थ्य भी मुझमें नहीं है। इसलिए मैं एक सांस्कृतिक नियोगी मात्र बनकर, सामरस्व के लक्ष्य को साधने की दृष्टि से इस कायं को साध्यता-असाध्यता को समझने की कोशिश करूँगा।"
"तो यह स्थान छोड़कर वहाँ जाने की इच्छा है?"
"इसके वह माने नहीं कि यहीं से छोड़ जाऊँगा। यहाँ रहकर कार्य को साधा नहीं जा सकता इसलिए वहाँ जाना होगा।" ।
"पिरियरसी जी ने पहले ही कहा था न? तब आपने कहा था मेरा वचन द्रोणाचार्य के वचन के समान है जिसे उन्होंने भीष्माचार्य से कहा था 'मेरा कार्य समाप्त हुआ, अब मैं स्वतन्त्र हूँ। शायद अभी उसका स्मरण हो आया हो और जाने की इच्छा हो गची हो?" शान्तलदेवी ने पूछा।
"मुझे यह बात याद ही नहीं। पट्टमहादेवीजी को यह अभी तक याद रही आयी? सच है, तब मैंने यह बात कही थी। परन्तु अब वहाँ जाने की इच्छा ..."
''यहाँ से भी बढ़कर स्थान पाने के लिए।' बिट्टिदेव बीच में ही कह उठे। "न, न, मुझे ऐसी कोई आकांक्षा नहीं है। मुझे अपनी योग्यता से बढ़कर
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 597