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राजलदेवी ने कहा।
''कोई बात नहीं, पासा फेंका हैं, देखें क्या होता है। परन्तु हमारे बारे में क्यों कहना चाहिए था।"
__ "शायद कुछ सन्दिग्ध परिस्थिति में कहा होगा, क्योंकि वह निश्चय हुआ था न कि मौक़ा आने पर ही कहना होगा।" ___ "उन्हीं से पूछकर जान लेंगे। अब यह सब-कुछ लोगों को तो मालूम हो ही गया हैं। हम जहाँ ठहरे हैं वहाँ यदि हमारा पता लग गया तो कुछ कठिनाई आ सकती है, इसलिए पट्टमहादेवी से विनती करेंगे कि इस बात का प्रचार न हो।"
"अब यहाँ भोजन के लिए फँस गर्थी न?"
"कोई गलती नहीं हुई। प्राज्ञ लोगों ने कहा है कि अभ्यागत ईश्वर समान होता है।" कहते हुए मारसिंगच्या भस्म धारण किये तथा शुभ्र धुलो धोती पहने उपरना ओड़े आये।
चकित होकर दोनों ने उनकी ओर देखा।
"क्या बात है?' मारसिंगय्या ने प्रश्न किया। स न धादलया है. लाकर आपक माध पर मन और गल में रुद्राक्ष!"
"इसमें आश्चर्य ही क्या है। मैं शिवभक्त, शैव हैं।" "तो जैनियों के साथ बेटी का...?"
मारसिंगय्या बीच में ही हैंस उठे। बोले, "हमारी हेग्गड़ती भी जैन हैं। हप शैव । पट्टमहादेवी भी अपनी माँ की तरह जिन-भक्त हैं।"
"ऐसा भी हो सकता है. यह हमें पता न था!" "मानव, मानब बनकर जीने का प्रयत्न करें तो ऐसा हो सकता है।''
"आप शैव हैं। हाँ, सन्निधान के जिन-भक्त होने के कारण पट्टमहादेवी को कोई परेशानी नहीं हुई होगी।"
"यदि पट्टमहादेवी शैव ही होती तब भी वे इसी तरह रहती। अगर आपके परिवार से कन्या लाने की बात होती तो भी वे इनकार नहीं करते। आप शैव हैं.
"हाँ। फिर भी पति एक और पत्नी दूसरे देव पर विश्वास रखकर पूजा-अर्चा करने लगे- यह सम्भव कैसे हो सकता है? यह तो हमारी समझ से परे की बात
"इस विषय पर आप पट्टमहादेवी से चर्चा कीजिएगा। वे आपको अच्छी तरह समझा सकती हैं।"
इतने में बाहर से पालको के उतरने की आवाज़ सुन पड़ी। ''वह देखिए, वे
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 413