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कन्तिदेयी यहुत अनमनी-सी हो गयी थीं। स्वयं अज्ञात होकर रहती थीं। परन्तु मुझे बहुत विषयों की जानकारी हैं वह मानकर दण्डनायक मरियाने ने मुझे अपनी बेटियों की शिक्षिका बनाकर रखा। मैंने अपने वारे में कुछ न कहा तो भी मुझको नियुक्त करते समय उन्होंने एक बात कही थी-"देखिए, मेरी इच्छा है कि मेरी बेटियाँ गुणवती बनें । वास्तव में मुझे यह नहीं लगता कि लड़कियों को विशेष शिक्षण की आवश्यकता है, यह मेरी व्यक्तिगत राय है। वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में पारिवारिक जीवन को छोड़कर किसी तरह के बाहरी व्यवहार के विषय पें विचार-विमर्श स्त्री से पुरुष करें यह सम्भव नहीं। महर्षि मनु ने कभी कहा था कि 'कार्येषु मन्त्री' इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि स्त्रियों से विचार-विमर्श किया जाता रहा है। वह हालत क्यों बदल गयी यह तो मुझे मालूम नहीं। जो भी हो, इस स्थिति में भी समाज चलता रहा है। इधर-उधर कुछ मन्द बुद्धिवाली नारियों टेढ़ी-मेढ़ी राह पकड़कर अपने सुख-भोग की इच्छाओं को पूरा करती रही हैं और इस वजह से पुरुषों के प्रति उदासीन रही आर्थी, यह मुझे मालूम है। इनमें कौन सही, कौन गलत है-इस बात की विवेचना कर सकने की सायिक प्रज्ञा मुझमें नहीं है। हमारे राजघराने के लोग विद्या-प्रेमी, कला-प्रेमी और अभिमान के धनी हैं। इन दातों के प्रति रुचि उत्पन्न होना हो तो एक विशेष प्रज्ञा की आवश्यकता है, यह सत्य है। इन सब बातों को लक्ष्य में रखकर ही ग़जकुमारों की शिक्षा की व्यवस्था की गयी है। हमारा राजपरिवार के साथ निकट सम्बन्ध होने की सम्भावना है। हमारी च्चियों को इस सम्बन्ध के योग्य बनाना होगा। ऐसा शिक्षण उनको मिलना चाहिए।"
जितना हो सकता है उतना शिक्षण देने का प्रयत्न करना कर्तव्य समझकर कन्तिदेवी ने स्वीकृति दी धी। शिक्षिका बनने के बाद, बड़े राजकुमार के साथ दण्डनायक जी की बड़ी लड़की के विवाह की बात चली। उस हालत में जिम्मेदारी कितनी बड़ी हैं, या भी विदित हो गया । वास्तव में पद्मलदेवी की महारानी के पद के योग्य बनने के लिए किस तरह के शिक्षण की आवश्यकता है, इसे समझ-बूझकर उसके योग्य शिक्षण देने का भी विशेष ध्यान रखा गया। संयम, विवेचनाशक्ति, उदारता, पूर्वाग्रह-दोष-मुक्त-मनोवृत्ति, करुणा आदि का स्वरूप-निरूपण करके उनसे प्राप्त होनेवाली फल-प्राप्ति आदि बातों का भी अच्छी तरह मनन करवाया था। शान्तलदेवी के दोरसमुद्र में आने के बाद, इन शिक्षित मनोभावों का शिष्यों के मन में सुस्पष्ट रूप व्यक्त हुआ भी धा। अपनी जिम्मेदारी को भलीभाँति निर्वहण करने के लिए उनके मन में दृढ़ संकल्प भी जागा था परन्तु बाद में घटी घटनाओं की जानकारी होने पर उनके मन में एक तरह की परेशानी उत्पन्न हो गयी थी। उन्हें ऐसा लग रहा था कि सारा परिश्रम पानी में होम करने का-सा हुआ।
392 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दी