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पहले कभी एक बार कांधे नागचन्द्र और स्वयं ऋन्तिदेवी में किसी साहित्यिक विषय पर चर्चा हुई होगी, उस समय उन दोनों ने अपने-अपने शिष्यों के विषय में भी बान की भी। तब कतिवी में या कि अपन, शिघ्याओं को खरा सोना बना देंगी। उस सपय राजमहल में घटित बल्लाल के असहनीय व्यवहार और बाद में हुए परिवर्तन आदि विषयों को बताते हुए कवि नागचन्द्र ने कहा था कि उनका शिष्य भी उनके शिक्षण और मार्गदर्शन में महाराज बनने के योग्य व्यक्तित्व प्राप्त करने की ओर प्रगति कर रहा है। इस चर्चा के पश्चात् दोनों कभी-कभी आपस में विचार-विमर्श करते समय कहा करते थे कि वे एक आदर्श राज-दम्पती बनाने में सफलता पाएँगे। ये सब बातें आज उन्हें अपनी आँखों के सामने दिख रही थीं। अपनी असफलता की याद करके कन्तिदेवी ने निश्चय ही कर लिया कि वहाँ रहना उचित नहीं। वे तो कभी अपने जीवन में अपने लिए किसी तरह की कोई आकांक्षा ही नहीं रख रही थीं। दण्डनायक ने जो कार्य सौंया था उसका शक्तिभर निर्वहण किया था। अब तो उनकी बेटियों को किसी तरह की शिक्षा की आवश्यकता भी नहीं थी। आस्थान-कवयित्री बनने की भी उन्हें चाह नहीं थी। ईयां रहित एक कवि भाई के औदार्य ने यह पद और विस्दावली आदि सम्मान प्राप्त कराया था। परन्तु उनका भी उन्हें कोई मूल्य नहीं दिखाई दिया। संन्यास ग्रहण करके भावी जीवन ध्यान कर्म में व्यतीत करने का निश्चय कर, यहाँ से मुक्त होने की अनुमति प्राप्त करने के विचार से वे पट्टमहादेवी शान्तलदेवी के पास गयीं।
शान्तलदेवी ने उनके इस प्रस्ताव को एकदम स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा, "ज्ञानदान से महान कोई दूसरा दान नहीं। वह ध्यानस्थ होने से भी बढ़कर है। सन्निधान पेरी सलाह के अनुसार केवल लड़कियों के लिए अलग शिक्षण की व्यवस्था करना चाहते हैं। उसके निर्वहण संचालन आदि पर आपकी ही देखरेख हो, यही उनकी अभिलाषा है। इसलिए पोयसल राज्य का एक बहुत बड़ा उपकार अभी आपसे होना है; ऐसी स्थिति में मुक्त होने के लिए अनुमति कैसे मिल सकेंगी?''
"परन्तु योग्य शिक्षण देने में मैं असफल हुई हूँ। इसलिए, जिस महान योजना को सन्निधान कार्यगत करना चाहते हैं, और जिसका करना आवश्यक है, उसके लिए मेरी योग्यता अपर्याप्त है। दोरसमुद्र में राजपरिवार और टण्डनायक परिवार-दोनों ने बहुत प्रेम के साथ मुझे आदर देकर गौरवान्वित किया है. मेरी इस अल्पविद्या को मान्यता देकर सम्मानित किया है। मैं इस ऋण से कभी मुक्त हो ही नहीं सकती। परन्तु, पूर्वस्थित महाराज का अवसान मेरी प्रिय शिष्या के ही बरताव के कारण हुआ; इसका स्मरण करते हुए मैं यहाँ शान्तिमय जीवन व्यतीत
पटमहादेवी शान्तला : भाग दो : 399