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की जरूरत नहीं। पैर दान-दावते उसने कहा, 'समिशन के पैर फिलन कृश हो गये हैं।'
''यह शरीर ही अशाश्वत है, इसकी सूचना देने के लिए पैर ऐसे बन गये हैं।' दल्नाल ने कहा।
'सन्निधान अभी से विरक्त हो जाएं तो हम लोगों का क्या हाल होगा?'' "हम लोग, इस बहुबन्धन का प्रयोग क्यों?''
"कवचन होगा कैसे एक लक्ष्य रखनेवाली और सन्निधान की पाणिगृहीता हम तीनों पृथक-पृथक् तीन शरीर मात्र हैं न?"
"ओह, सौतों की तरफ़ से भी पट्टमहादेवी विनती कर रही हैं। "सौत होने पर भी वहिनें ही तो हैं।"
"बहिनें होकर भी सौत हैं, इस भावना से सौतें बहिनें हैं, यह भावना अधिक अच्छी है।" वल्लाल ने कहा।
"देरी से इसका बोध हुआ है। पद्मलदेवी वाती! "वात हृदय से निकली हो तो सन्तोष का विषय है।"
"हम सयका जीवन इस प्राम्भिक दशा में जैसा था वैसा ही होना चाहिए। उस अमराई में, जन आन-मंजरियों से लदे वृक्षों के बीच जैस हमारे वे दिन व्यतीत हुए वैसा ही होना चाहिए । अब सब-कम है, फिर भी कुछ नहीं ऐसा जीवन किस काम का सन्निधान इस यात को जब तक स्वीकार न करें और मेरे प्रकोष्ठ में आकर साथ न रहें, तब तक मंगे वही धारणा रहेगी कि मुझे मान्नधान से दूर रखने का एक षड्यन्त्र राजमहल में हो रहा है। इस षड्यन्त्र का कारण सन्तान पाने की मेरी आकांक्षा है, जो सहज है और पट्टमहाटेवी होने के नाते भी हैं। हमारे विवाह को करीब-करीब तीन वर्ष हो गये, फिर भी माँ बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। इस सौभाग्य की प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिए, इस बात को लेकर मैंने पुगेहितजी से पूछा । इसन्निा पाछा कि बोप्पदेयी पर भगवान 'ना ने कृपा की वह मुझ पर क्यों नहीं की। उन्होंने कहा कि इसके लिए नागदेव की प्रतिष्टा करें। सन्निधान से पृष्ठकर इस विषय में पुरोहितजी से गय लेनी चाहिए थी। इस पर पहले विचार कर लेती तो ऐसा करना सम्भव हो सकता था। परन्तु वधमान जयन्ती के सन्दर्भ में पुरोहितजी जब राजमहल में आय तो उन्हें देख अचानक मेरे मन में यह भावना आदी। उन्हें चलवाकर पूछ लिया। सन्निधान मुझपर अनुग्रह करें।"
बल्लाल ने तुरन्त क. जवाब नहीं दिया। किसी सोच में इंव रहे।
थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद पक्षालदेवी ने पुख, "क्या, सन्निधान की इच्छा नहीं :"
172 :: पङ्गमाहादेवी शान्तला : भाग दी