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से सार्थकता नहीं समझकर संसार को त्याग देने के विचार से संन्यास ग्रहण कर दोरसपुद्र को ही त्याग दिया।
चला तो खुद मरकर भी सन्निधान को जीवित देखना चाहती थी; यो हालत के पलट जाने के कारण रात-दिन रोती बैठी रही। सन्निधान की प्राणरक्षा के लिए अपना शील तक लुटा देनेवाली के आज प्राण नहीं निकल रहे हैं। पतिव्रता बनकर पति के ही प्राण हरण करनेवाली के जीवन से अपने जीवन को ही पुनीत कहकर वह आगबबूला हो उठी थी।
किसी तरह की प्रतिक्रिया के वशीभूत न होकर, बल्लाल की मृत्यु को गम्भीर सागर की तरह सामना करनेवाली अकेली कोई थी तो वह पहामातृश्री एचलदेवी थीं। उनके संयम ने सबको धीरज बँधाया।
बिट्टिदेव सिंहासनारूढ़ हुए परन्तु उन्हें महाराज बनने की कोई खुशी नहीं हुई। कभी स्वप्न में भी उन्होंने नहीं होगा कि किसान का होता. मी भाभी ने कहा था कि उन्हें सिंहासन का लालच है। उस मूर्ख स्त्री की बात की कोई कीमत न थी, इसतिए उस ओर उदासीन ही रहे। केवल राष्ट्रहित साधने के कर्तव्य को अपना दायित्व मानकर बड़े गौरब और आदर से उस सिंहासन पर आरूढ़ हुए थे। उन्होंने एक बार (भाई से) वह भी स्पष्ट कह दिया था, ''मैं आपका गरुड़ बनकर आत्मार्पण करने तक के लिए तैयार हूँ।" ___ एक बार पालदेवी का झूठा आरोप इस तरह सच हो जाएगा. इस बात की किसी को कल्पना भी न थी। रेविमय्या को दुःख भी हुआ सन्तोष भी। माचिकब्बे इस देवी लीला पर चकित थी। उन्होंने अपने पति मारसिंगय्या से कहा, 'कुछ का शाप वर बन जाता है इसके लिए यह निदर्शन हो सकता है?''
'दूसरों की बुराई न चाहनेवालों को ईश्वर किस तरह का वरदान देता है, इस वैचित्र्च की रीति को समझने के लिए यही प्रमाण है।" मारसिंगय्या ने पली की राय में अपनी राय मिलायी।
छुटपन में बल्लाल का बरताव देख एक बार एचलदेवी ने मन-ही-मन कहा था कि बिट्टिदेव ही पहले जन्मा होता तो अच्छा धा। इसी बात को मरने से पहले बल्लाल के मुँह से कहलवाया मानो उसने मेरे मन की बात को पहले ही सुन लिया हो। उस भगवान की रीति ही निराली है। मैं माता, मेरे मन में ऐसी बात को क्यों उत्पन्न किया? माँ बनकर मैंने बच्चों के साथ प्रेम करने में किसी तरह का भेदभाव नहीं रखा। राष्ट्रहित चाहनेवाले मन को जो सूझा वह ईश्वर द्वारा पहले से ही नियोजित है या होना चाहिए, उसके निर्णय से भिन्न निर्णय करनेवालों के लिए उत्तर वहाँ है। उसकी इच्छा हुई तो एक साधारण हेगड़े की बेटी न चाहते हुए भी रानी बन सकती है। दूसरी ओर रानी बनने की इच्छा लेकर, उसके लिए
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 389