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पलंग पर बिठा लिया।
उसने झटका देकर निकल जाने की कोशिश की परन्तु वैसे हो न सका । "आप मुझे कुछ भी कहें, मगर मरकर सुरलोक में रहनेवाली मेरी माँ की चात यहाँ क्यों उठाना चाहिए थी?" पद्मला ने प्रतिवाद किया।
"जो बात है सो कहा तो इसमें असमाधान की क्या बात हुई तुम ही ने तो अपनी माँ के चारे में आक्षेप किया कि उस तरह का उनका व्यवहार ठीक नहीं था। यह बात तुम अपने पर लागू करके अपने को ठीक बना लो, यही मेरे कहने का आशय है। इसके किसी अन्य अर्थ की कल्पना मत करो।"
"हीं, मैं तो सदा अपार्थ की ही कल्पना करती रहती हूँ। इसलिए मेरा संग सन्निधान जैसे गण्य व्यक्तियों के योग्य नहीं। इसलिए, आपको सहूलियत हो इसी खयाल से मैं किवाड़ खोलने निकली थी।"
"वह तुम्हारी टेढ़ी मनोवृत्ति का प्रतीक है।”
"किसकी प्रेरणा से सन्निधान मुझपर यह आरोप लगा रहे हैं ? "
"इसके लिए प्रेरणा की क्या जरूरत हैं? आँखों देख-सुनकर एक-दूसरे का विरोधी जानने के बाद ऐसा ही सोचा जा सकता है।"
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"हाँ, मेरा सारा काम तो दूसरों के विरुद्ध है। हँसते-फुटकते मीठी बातें करके अपनी इच्छा अनुसार नचाने की हिकमत कर उस व्यभिचारिणी चट्टला से नाटक रंचाकर सब काम साधनेवाला कौन है, ये मैं जानती हूँ। उनका क्या लक्ष्य है सो भी मैं समझती हूँ। वह है वह पोथ्सल राजगद्दी । सन्निधान इन बातों की ओर से बेखबर हो सकते हैं मैं तो अन्धी नहीं बन सकती । षड्यन्त्र के खुल जाने के डर से उस बाचम को सूली पर चढ़ा दिया गया न!" "इन असंगत बातों को बन्द करो
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हमारी सहनशक्ति की भी कोई सीमा
हैं।"
"यह जानना अच्छा होगा न कि औरों की सहनशक्ति की भी कोई सीमा होती है। पीढ़ा लगाकर मिष्टान्न सामने रखकर खाने से मना करें तो कितने समय तक उसे बैठे देखते रह सकते हैं? स्वास्थ्य के बहाने वैद्य से कहलाकर रानियों के संग से दूर रखने का उद्देश्य और क्या हो सकता है? इसका यही तो माने हुआ कि पत्तल परोसकर सामने बिठाकर खाने से मना कर देना । सन्निधान को सोचना-विचारना चाहिए। रानियों के पुरुष सन्तान न हो तो उससे लाभ किसे होगा ? यह आप समझें न समझें, यह बात मेरे लिए इतने महत्त्व की नहीं। अभिलषित भोजन सामने पाकर मैं व्रत नहीं रख सकूँगी। सन्निधान ऐसा ही रहने का आदेश दें तो परिणाम क्या होगा। सो मैं कह नहीं सकती। कुछ भी हो मैं अब चुप रहनेवाली नहीं, भले ही कोई होनी हो जाय। अब सन्निधान स्वयं निर्णय
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो 375