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को बुला लाओ। नहीं, हम खुद वहाँ चलेंगे, चलो। उन्हीं के सामने यह बात मनवा दूंगा कि ऐसी बात फिर कभी न उठे। छोटे अप्पाजी, अब वस्तुस्थिति का सामना करना ही होगा 1 बात छिपाकर रखने से कोई लाभ नहीं। हमारा जीवन एक असह्य जीवन है। इस जीवन में शान्ति अलभ्य है। फिलहाल कुछ सुख-शान्ति का अनुभव हो सकता है लेकिन एक-न-एक दिन वह ज्वालामुखी फटेगा ही, उसे गले से जो लगा लिया है। वह जो आग उगलेगा वह हमें भस्म करके ही रहेगी यह सत्य है। और लगता है, वह दिन भी दूर नहीं।" बल्लाल ने कहा।
बिट्टिदेव ने तुरन्त उनके मुँह पर अपना हाथ रख दिया। कहा, ''सन्निधान के मुंह से ऐसी बात हम सुनना नहीं चाहतं ।"
उनके हाथ को हटाकर बल्लाल ने कहा, ''न भी कहें तब भी होगा वही। इसके लिए दुःखी नहीं होना चाहिए। व्यक्ति मुख्य नहीं, राष्ट्र ही मुख्य है; जब हम यह बात कहते थे तर हमारा यही आशय था। कल अगर हम बिछुड़े गये तो उसका करण ढूँढ़ने की या चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं। इसके हम स्वयं कारण हैं। राष्ट्रहित की दृष्टि से यह अनिवार्य हैं। अब जाओ, फिर इस सम्बन्ध में कुछ भी बात न करना।"
"ठीक है।" कहकर चिट्टिदेव चले गये। पण्डितजी को बुलवाया गया। निर्गदेव, शान्दलदेवी और पदेनी तीनों ने रखले दिल से उनसे बातचीत की। बल्लाल के साथ हुई बातचीत का विवरण बिट्टिदेव ने पहले ही अपनी माँ और पत्नी को दे दिया था। ___ एचलदेवी ने कहा, ''पण्डितजी, आपने एक बार मेरे पुत्र को बचाया है। अब की हालत इस तरह है। इसके निवारण का क्या उपाय है: मुझे अब पुत्र-भिक्षा दें। सब-कुछ आपके हाथ में है। "बल्लाल जीवन रक्षक' आप अपने इस विरुद को सार्थक बनाइए।"
"सबका प्राणरक्षक तो वह सिरजनहार है। हम केवल निमित्त मात्र हैं। सन्निधान ने मुझे विरुद देकर भूषित किया वह तो उनके प्रेम का संकेत है, उनकी उदारता की देन है। यह औदार्य और प्रेम कर्तव्य के लिए प्रेरित करते हैं, यही इसका मुत्य है। वह सर्वज्ञत्व का साक्षो नहीं। अपनी बुद्धि-बल से भी अधिक प्रयत्न करूँगा। इसमें हमारी औपधि से अधिक मुख्य बात रोगी का सहयोग है। वर्तमान स्थिति में मन के बढेग के कारण यह रोग क्षण-क्षण पर अलग-अलग रूप धारण कर रहा हैं। इसलिए इस मानसिक उद्वेग विकारों को अवकाश न होने योग्य वातावरण उनके चारों ओर होना आवश्यक है। अबकी बार मुझे अनुभव हुआ कि छोटी रानी के अन्तःपुर में रहने पर सन्निधान का स्वास्थ्य अधिक सुधरा है। वे वहीं रहें तो उत्तम होगा।' पण्डितजी ने स्पष्ट बताया।
362 :: पट्टमहादेवी शान्ताला . भाग दो