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रही। अपने सारे विचार तथा राजमहल में जो कुछ घटा, वह सब उसने अपनी माता को भी बताया। हेग्गड़ती माचिकच्चे ने बेटी की सारी बातें सुनकर कहा, "अम्माजी, त्याग के अनेक रूप हैं। चट्टला का त्याग बड़ा महान त्याग है। उसे राज सम्मान मिलना चाहिए "
"माँ, उसे अब राज-सम्मान नहीं चाहिए, उसे चाहिए कौटुम्बिक सुख । यदि उसे प्राप्त करा दें तो वही उसके त्याग का उचित मूल्य होगा।'
“शीलभ्रष्ट स्त्री के साथ परिवार बसाना कैसे हो सकता है, अम्माजी?"
"बह तो इच्छापूर्वक उसने नहीं किया न?" ___“सच है, उसके प्रति सहानुभूति हो सकती हैं। परन्तु जैसा तुम कहती हो वैसा होना सम्भव नहीं लगता।" ___तब तो वही कहना होगा कि समाज अन्धा है। माँ, थोखा खाकर अहल्या का भी तो शील भंग हुआ था। वह स्तुतिपाट की पंच-कन्याओं में एक बनी या नहीं? प्राचीन काल का वह ओदार्य आज हमें अनुकरणीय नहीं?" शान्तला ने तर्क दिया।
"तुम बहुत पढ़ी-लिखी हो, अम्माजी। तुमसे वाद-विवाद करने की योग्यता मुझमें नहीं है। वह सब देवताओं और ऋषियों का जमाना था। यह हम मानवों का कलिकाल है। दोनों में बहुत फर्क है। अनजाने कुछ कर जाने पर भी उसने शाप भोगकर ही उससे मुक्ति पायी थी न? चट्टला शाप-ग्रस्त है। उसके शाप के विमोचन के लिए राम जैसे का अवतार तो सम्भव नहीं। मानों का लालच बढ़ता जा रहा है। दण्डनायिका जी को भला किस बात की कमी थी कि उन्होंने उस वामाचारी की मदद ली? एक बार यह भी मान लिया जाय कि वह इन सांसारिक प्रपंचों से अपरिचित थी, परन्तु दण्डनायक जी तो उसे समझा सकते थे। इन वामाचारियों का अस्तित्व ही अन्याय को आश्रय देने के लिए है।" शायद उसकी बात और आगे चलती, इतने में पालने में से बच्चे के रोने की आवाज़ सुनाई पड़ी। "बच्चे को दूध पिलाने का समय हो गया है,' कहती हुई माचिकच्चे चली गयीं।
शान्तला उस रोते बच्चे को उठा लायी। उसे खिलाने लगी। रोना कुछ कम हुआ। माचिकब्बे तब तक दूध और पिलाने का पात्र ले आयीं। और एक खम्भे से पीट सटाकर बैठ गयीं और योली, "ला, बच्चे को इधर ला ।'
शान्तला 'मैं ही दूध पिलाऊँगी," कहकर बच्चे को अपनी गोद में लिटाकर पान से दूध पिलाने लगी। बच्चा धीरे-धीरे दूध पीने लगा और पीते-पीते हाथ-पैर हिला-डुलाकर खेलने लगा। ''अरे, एक दूसरे भी तुम्हारे ही नामवाले हैं। बहुत बुद्धिमान हे वे। तुम्हें उनसे भी बढ़कर बुद्धिमान बनना है। लो पियो!" ऐसे ही कुछ बोलती शान्तला दूध पिलाती रही। इतने में हेगड़े मारसिंगव्या आये। अपने
222 :: पट्टपहादेवी शान्तला : भाग दो