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“हाँ।"
"इसलिए तुम एक काम करो। मेरे विवाह के दिन तुम और दासच्चे मुझे आशीर्वाद दो। तुम्हारे आशीर्वाद के द्वारा पिरियरसी जी का आशीर्वाद मुझे मिल जाएगा। इससे मुझे भी तृप्ति मिल जाएगी।"
"हाँ, हाँ, यह सब बचपना क्यों कर रही हैं, यह सब होने जाने की बात नहीं।” कहकर बुतुगा वहाँ से चला गया।
थोड़ी देर बाद मारसिंगय्या बोले, "तो बात यह हुई अम्माजी, चालुक्य चक्रवर्ती और पोसल राजाओं में अब आगे स्नेह-सम्बन्ध सम्भव ही नहीं । एरेयंग प्रभु को भाई समझनेवाले विक्रमादित्य चक्रवर्ती आखिर ऐसे क्यों हुए यह एक समस्या है। एक बार किसी बहाने मिलें और खुले दिल से वार्ता करें तो फिर से वही स्नेह, वही बन्धुभाव आ सकता है, ऐसा मुझे अब भी लगता है। दोनों कर्नाटक राज्य एक बनकर रहे होते तो यह अजेय गढ़ बनकर रह सकता था।"
" अधिकार का दुरहंकार ही ऐसा होता है, अप्पाजी। लड़की को ब्याह देकर समधी बननेवाले राष्ट्रकूट भी तो कर्नाटकी ही थे न उससे द्वेष करके उनका नामोनिशान मिटाकर चालुक्य वैभव से प्रतिष्ठित हुए। राष्ट्रकूटों की जैसी हालत कर दी, वही हालत उनकी भी कोई करेगा - यह सोच विचार न करके अधिकार जतलाना अहंकार नहीं तो और क्या हैं? विक्रमादित्य ने अपना शक स्थापित किया ठीक है। उसे आचन्द्रार्क स्थायी बने रहना हो तो चालुक्य राज्य को बना रहना जरूरी है। इसके लिए स्नेह बढ़ाकर लोगों में सद्भाव बढ़ाना होगा। अधिकारमद से वह साध्य नहीं होगा। अधिकार-दर्प के वशीभूत होना आदर्श राजा का लक्षण नहीं । राजा का यह निर्णय इस दृष्टि से ठीक है; ऐसा मैं सोचती हूँ ।" शान्तला बोली ।
"फिर भी स्नेह का हाथ बढ़ाना ग़लत नहीं, अम्माजी । स्नेह दिखाने का अर्थ झुकना नहीं । द्वेप बढ़ाने का अर्थ हैं बुद्ध के लिए बुलावा देना। युद्ध का अर्थ हैं निरपराध जनजीवन को संकट में डालना। स्नेह बढ़ाने पर युद्ध पीछे सरक जाता है। वह जितना टले उतना अच्छा। जनता को यह मुख्य नहीं कि कौन राज करता है, कैसा राज चलाता है। अपने सुख और खुशहाली के लिए यह राज्य संचालन पोषक और पूरक है या नहीं, इसी को प्रजा देखती है। जग्गदेव की बड़ी सेना को हमने जीत लिया। परन्तु इस विजय के पीछे हमने कितनों के प्राण गँवाये, कितनी सम्पत्ति खोची! फिर से इतना अर्जन करने के लिए कितना और समय चाहिए!
यह सब सोचा है? चालुक्यों की निगलने के लिए चारों ओर लोग सशस्त्र हो समय की प्रतीक्षा में हैं। उनका निवारण करने के लिए सशक्त न होने के कारण, राजनीति की बुद्धिमत्ता दर्शाते हुए उन लोगों को इधर मोड़ दिया था। अभी हमने
274 पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो