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"देखिए इस मुन्ना को, आपको याद आयी कि फिर उसका ध्यान अन्यत्र आकर्षित करना सम्भव ही नहीं होता। जब तक न देख लैगा तब तक मां, पी' चिल्लाता, रट लगाता ही रहेगा। वास्तविक माँ न होते हुए भी आपसे इसे कितना लगाव है! आपने तो पूरी मपता उड़ेल दी है उस पर।' चट्टला बोली।
"तुम भी यह जाने रहो कि वह जब तक बड़ा न हो जाए, समझ-बूझ न आ जाए तब तक उसे ऐसे ही समझने टो। जरा जाकर देखो तो, नाश्ता तैयार है या नहीं।" शान्तला ने आदेश दिया।
चट्टला गयी और शीघ्र लौटकर बताया, "तैयार हैं।"
शान्तला देवी विट्टिगा को गोद में उठाकर दण्डनायिका एचियक्का के साथ नाश्ता करने चली गयीं।
इधर दोरसमुद्र में किसी तरह के उतार-चढ़ाव के बिना दिन गुजरते चले गये। एक दिन अचानक बोप्पदेयी ने आकर वल्लाल के पैर छुए और हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी। बालाल ने चकित हो हैंसमुख होकर पूछा, "कोई खास बात है?'
बोप्पदेवी ने एक यार आँख भर देखा। एक कदम आगे रख पल्लू के छोर को हाथ में ले लजाती हुई मरोड़ने लगी। संकोच के मारे सिर झुका लिया था।
"बलाल ने अपने हाथ आगे बढ़ाये तो बोप्पदेवी ने उन्हें अपने हाथों में थाम लिया। उसे खींचकर बल्लाल ने उसे अपनी अगल में बैठा लिया और पूछा, बताओ क्या बात है: मुझसे कहते संकोच क्यों?"
वह फिर नीचे झुकी और पैर छूकर बोली, "पोसल सिंहासन का उत्तराधिकारी ही जनमे-ऐसा आशीर्वाद दें।"
इसके सिर पर बालाल का हाघ यों सहज ही आ गया था लेकिन जब उन्होंने यह सुना तो अनपेक्षित ही वह झाध पीछे सरक गया। उसे कोई उत्साहपूर्ण उत्तर नहीं मिला था। यह सब कुछ ही क्षणों की प्रतिक्रिया थी। छोटी रानी ने सिर उठाकर पत्ति की ओर देखा । पूछा, "क्यों प्रभु! मेरी वह अभिलाषा आपको रुचिकर नहीं लगी?' उसकी आँखें भर आयी थीं।
बल्लाल को अब अपनी असावधानी का परिणाम प्रत्यक्ष दिख रहा था। वे बोले, ''इसका माने क्या है, देवी? मेरी होनेवाली पहली सन्तान मेरी उत्तराधिकारी बने-यही मेरी अभिलाषा है। तुमने जो कहा वह शीन मेरी समझ में नहीं आया था। अब जाओ, और भगवान के सामने घी के दीये जलाकर प्रणाम कर आओ, अपनी दीदियों का भी आशीर्वाद पाओ।"
उतावली में छोटी रानी को आँसू तक पोंछने का ध्यान नहीं रहा। वहीं से
पट्टमहादेयी शान्तला : भाग दो :: 267