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से बाहर आचा। फिर उसने खड़े होकर इर्दगिर्द देखा, और फिर दो बार ताली बजाकर चल पड़ा। इसके थोड़ी देर बाद वह स्त्री एक फूलों से भरी टोकरी लेकर सहज ढंग से ही बाहर आयी और चली गयी। मैंने राजमहल की सभी दासियों को देखा नहीं। सभी से परिचित नहीं हूँ, इसलिए मैं उसका नाम नहीं जानती। परन्तु उसे पहचान सकतो हूँ।"
"उसके नाम-धाम का पता लगाओ। नहीं, नहीं, मैं जब रहूँ तब वे इधर चलते-फिरते नजर आ जाएँ तो मुझे संकेत कर देना।" शान्तलदेवी ने कहा।
'रानीजी उसे काम सं हटा सकती हैं न?"
"नहीं, उसे काम से हटाने पर हमें कई बातें मालूम नहीं होंगी। नीतिभ्रष्ट लोग ही कई तरह के अन्यायों में सहायक बनते हैं। इनके प्रति सतर्क रहना; वह देखते रहना कि वे किस-किससे मिलते हैं, और मिलते समय सतर्क रहकर मिलते हैं या सहज रीति से-इन बातों पर विशेष ध्यान देकर उनकी चाल-चलन का पता लगाती रहना। सुन सकती हो तो आपस में जो बातें होती हैं उनको ऐसा छिपकर सुनना कि जिससे तुम उनकी नजर के सामने न पड़ो।'' शान्तलदेवी ने कहा।
उस दिन से गालब्चे बिडिगा की देखभाल के काम से छुट्टी पा गयी। वह जो भी काम करेगी, साहस के साथ कर सकेगी। पहले एक बार बाघ के पिंजड़े में जाता . पदद लामी। यह गे गहामी पहिमा की लिसी से डरनेवाली नहीं थी।
उस दिन से उस भ्रष्टशीला ओरत और उसके रखैल कामुक पुरुष-दोनों पर वह सतर्क दृष्टि रखती रही। शान्तलदेवी को भी, दूर से उनको देखने का मौक़ा मिल गया। उन्हें लगा कि उनके यादवपुर चले जाने के बाद, शायद इन दोनों की नियुक्ति हुई हैं।
शान्तलदेवी को अच्छा नहीं लग रहा था । चहिनें भी एक साथ मिलती ती थीं। परन्तु इस मिलन में परस्पर प्रेम और अपनेपन का भाव दिखता-सा नहीं लगता था। लगता कि वे हृदय से नहीं, उसकं दाक्षिण्य के वशीभूत होकर मिलने की रस्म अदा कर रही हैं। शान्तलदेवी को मायके से राजमहल में आये इस तरह एक महीना हो गया था।
तभी पट्टरानी पद्मलदेवी के जन्मोत्सव का दिन आया। राजमहल के परोहितजी ने आकर प्रधानजी की यह सूचना दी। प्रधान गंगराज ने, दण्डनायक भाषण से विचार-विमर्श करकं, जन्मोत्सव को मनाने की रीति और व्यवस्था के सम्बन्ध में पट्टानी से परामर्श करने के लिए एक विज्ञप्ति उनके पास भजी।
- पद्मलदेवी सोचने लगी- में पट्टमहादेवी हूँ इसाला! न मुद्दा यह गौरव प्राप्त हं! मामा स्वयं मेरे पास विज्ञप्ति भेजते हैं। भाई भी विज्ञप्ति भेजते हैं। ऐसे
812 :: पट्टमहादेयी शान्तता : भाग दा