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गौरवशाली स्थान पर मैं इस वक्त रह रही हूँ। कल यदि मैं राजमाता नहीं बन सकती तो मेरा यह स्थान हास्यास्पद बनेगा न' महाराज के लौट आने पर इस बात का निर्णय हो ही जाना चाहिए। अगर शान्नला यहाँ रहेगी तो पलड़ा किस तरफ़ भारी होगा, काँटा किधर झकेगा, कह नहीं सकती। इसलिए बुद्धक्षेत्र से महाराज के लौटते ही इन दोनों को यादवपुर भेज दूं तो भरा काम शायद आसान हो जाएगा। लौटने के बाद, महाराज को पूरी ऋतु मेरे ही साथ रहना होगा न! तब ठीक कर लूँगी। अन्यत्र जो कार्य नहीं सधता, इसे अन्तःपुर में साधा जा सकता है।" यह सब सोच-विचारकर उसने निर्णय किया, 'जय महाराज युद्धक्षेत्र में है तो वर्धन्ती का यह उत्सव आडम्बरपूर्ण न हो, निमित्तमात्र के लिए मनाया जाय, और राजमहल तक ही सीमित हो।"
अपने इस निर्णय की सूचना प्रधानजी और पटनाश मात्तप गेनों को दे दी ! प्रधान गंगराज ने कहा, "ठीक है, पट्टमहादेवीं के विचार बहत उत्तम हैं, हां भी स्वीकार है। फिर भी यह अछा है कि दूसरी रानियों से भी पूछ लें। यह लौकिक व्यवहार की बात है।'' उन्हें मालूम था कि रानियों में परस्पर अनबन है और इप्या भी हैं। ____ "यह तो हमारी अपनी बात है। दूसरी रानियों की राय की इसमें क्या जरूरत? जव महाराज यहां नहीं हैं तो क्या वे धूमधाम चाहेंगी? इसमें लौकिक व्यवहार की क्या बात है" पालदेवी ने कहा।
"महाराज वहाँ होतं तो इस सम्बन्ध में बात करने के लिए यहाँ तक आने की हमें आवश्यकता ही नहीं पड़ती। महाराज जय तक बद्धक्षेत्र में हैं तब तक राजमहल में कोई भी कार्य करना पड़े तो सब रानियों से पूठकर ही निर्णय करने का आदेश है।"
"मैंने अपनी राय बता दी; फिर जैसी आप लोगों की इच्छा ।" पदानदेवी ने बात को वहीं समाप्त कर दिया।
"अच्छा।' कहकर दोनों बजर्ग यहाँ से चल दिये। उनके चले जाने पर पद्मलदेवी ने घण्टी बजायी। दासी दामब्वे ने उपस्थित होकर प्रणाम किया।
पद्मलदेवी ने उसे आदेश दिया, ''जाओ. प्रधानजी और दण्डनायक किस तरफ़ गये देखकर मुझे बता।"
दामब्बे तुरन्त चल पड़ी।
पालदेवी गुस्से तमतमा रही थी : तो क्या महाराज समझत हैं कि पट्टरानी दासीमात्र हैं। गजमहल के कार्यों को करना हो तो उन छोकरियों में क्यों पूछना होगा इसका क्या मान साफ़ है-वह बोणि गर्भवती हुई, वह अकंली वंश
पट्टमहादेवी शान्तना : भाग दो : 813