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की सन्तान भगवान की इच्छा के अनुसार ही होगी। यदि बच्ची हो जाय तो कोई क्लिष्ट पारेस्थिति नहीं उत्पन्न होगी। यदि लड़का जनमेगा तो उस हालत में भी समस्या उठ खड़ी हो सकती है, इसलिए राजपरिवार की रीति का निर्णय हो जाना अच्छा है। इस तरह निर्णय होने पर सभी की निश्चित धारणा बन सकेगी। उस हालत में किसी को स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा के लिए मौका नहीं रहेगा। एक स्थान के लि अनेक अधिकारी जनमेंगे ती ऐसे मौके पर ईर्ष्या, द्वेष, मात्सर्य आदि भावनाएँ बढ़ने लग जाती हैं।" एचलदेवी ने स्पष्ट किया।
"आपकी राय क्या है, मों?'' "मेरी दृष्टि में पट्टपहिषी के पुत्र का ही पट्टाभिषेक हो, यही उचित लगता
है।"
''यदि उसे पुत्र सन्तान न हो, तब:" "उसके बाद की रानी के पुत्र को यह अधिकार मिलना चाहिए।'
"तो आपकी दृष्टि में छोटी रानी को अब पुत्र जनमे तो भी उसे सिंहासन पर बैठने का अधिकार नहीं रहेगा। उसे बह अधिकार तभी मिल सकता है कि जव अन्य रानियों के लड़के न हों। यही न?'
__''मुझे नो वही न्यायसंगत मालूम होता है। सभी की राय ले लो। परन्तु यह निर्णय हो ही जाना चाहिए। प्रसव होने तक प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।'
ऐसा ही हो. माँ। वही करेंगे।" बल्लाल के इस आश्वासन ने उन्हें साधना दी। राजमहल में जो घटना घटी थी उसे सुनकर उनके मन पर पञ्जाघात-सा अनुभव हुआ था ! बाद में वे अपनी बहुओं के साथ सहज व्यवहार ही करती रहीं मानो कुछ हुआ ही नहीं।
बल्लाल के कहे अनुसार, विट्टिदेव और उदयादित्य दोनों दोरसमुद्र शीघ्र ही लौट आये।
एक प्रशान्त वातावरण में राजमहल का जीवन एक पखवारे तक गजरा। तारण संवत्सर समाप्त हुआ और पार्थिव संवत्सर का आगमन हो गया।
एचलदेवी की इच्छा के अनुसार, सिंहासन के उत्तराधिकारी को चुनने के सिद्धान्त पर निर्णय करने के लिए सभा बुलावी गयी और निर्णय भी किया गया। इसके फलस्वरूप बोप्पदेयो में अंकुरित एक दूर की आशा वहीं मुरझा गयी। इस मौके पर मरियाने दण्डनायक को भी बुलवा लिया था। उन्होंने भी इस निर्णय को योग्य माना और इन लोगों से कभी आपस में बातों ही बातों में कहे गये विषय को लेकर जिद करना उचित नहीं मानकर, अपनी बेटी को भी समझाया। __ पिताजी, इस निर्णय से मेरे बेटे की जान बच गयी समझो। यही मेरा अहोभाग्य है।'' कहती हुई एक माँस में बोप्पदेवी ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर
358 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो