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चाहिए था। गसमें क्रोध रंच मात्र का भी नहीं दीखा ! क्रोध को यों छिपाये रखना सम्भव नहीं होता।"
"वह दैन्य नहीं। मन-ही-मन जो शाप दे रही थी उसके लिए वह एक आवरण था। मैं अपनी बहिन को सन्निधान से भी अधिक जानती हूँ। वह हम सभी को शाप देने से कभी पीछे हटनेवाली नहीं। वह चुपचाप मौन साधे रहकर अन्दर-ही-अन्दर षड्यन्त्र करनेवाली धातुक प्रवृत्ति की है।'' कहते-कहते दाँत कटकटाने लगी। बाद में "दैन्न-वैन्न कहाँ? ऐसा होता तो जाते वक्त मुझसे आशीर्वाद लेने क्यों न आची? मैं तो अब छोटी बच्ची नहीं हूँ। अब मैं सब समझ गयी हूँ। मुझे यह भी मालूम हैं कि किसे-किसे पकड़ में रखना चाहिए।' पद्मलदेवी ने कहा।
बल्लाल को लगा कि सिर चक्कर खा रहा है। मुँह में पान की पीक भरी थी, उसे निगलते बक्त घूट गले में अटक गया। अपनी छाती पर हाथ रखकर बोले, ''पानी, पानी..."
घबराती हुई पद्यलदेवी छठी और एक चाँदी के घड़े में से कटोरे में पानी लेकर उनके हाथ में दिया। उसे पीकर बल्लाल वहाँ से उटकर चल दिये।
"सन्निधान यहीं आराम करते तो अच्छा होता।" पालदेवी ने उनके छाती पर रखे हाथ की ओर देखते हुए कहा।
"कुछ नहीं। सुपारी का टोष है, कुछ अटका-सा हुआ है। कुछ घबराने की जरूरत नहीं।'' कहकर फिर बात करने के लिए मौका न देकर अपने प्रकोष्ठ की
ओर चले गये। यहाँ पेट के बल अपने पलंग पर लेट गये। उनके दिमाग़ में पता नहीं क्या-क्या विचार अाते रहे। सब ठीक हुआ मानना केवल मरीचिका है। थंगली, थेगली ही रहेगी। जहाँ धेगली लगी वहीं फिर फटती है। इसे ठीक करना किसी के भी वश की बात नहीं। यही लगता है। स्त्री के इस मन को ऐसा तैयार करने के लिए भगवान किन-किन वस्तुओं का उपयोग करता होगा बात और तो प्रतिक्रिया कुछ और। छोटी रानी को गुस्मा है या इसी को? चाहे कोई गुस्सा करे, हमें तो मानसिक अशान्ति ही होगी? सही क्या है, ग़लत क्या हैं, इस बात का विचार न करके अपने को सब ओर से धन्द रखकर बैठनेवाली ऐसी औरतों के साथ रहना असाध्य है। पीष्टे चलकर जीवन असाध्य हो उठे तो कोई आश्चर्य नहीं। अच्छे गुस, उत्तम साधी संगी, प्रशान्त वातावरण, सब तरह की सख-समृद्धि सब बातों के होते हुए भी इस तरह का बरताय? इस तरह के व्यवहारां का फल प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष ही सही भुगतने के बाद भी ऐसा व्यवहार करे तो लगता हैं कि स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पता नहीं भगवान की क्या मी है। पहले ही मैं छोटे अप्पाजी की तरह माँ की बात मान लेता तो शायद यह हालत
360 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो