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हुई साड़ी संभालकर आगे-आगे चलने लगी। इन लोगों ने भी वही किया। आगे चढ़कर वे उस लिगृह के बाग़ में जा पहुंचीं। अन्दर से किसी की बातचीत सुनाई पड़ी। वह यों बात कर रहे थे
“यहाँ आये कितनी देर हो गयी! तुम्हारा क़िस्सा खत्म ही नहीं होता। कल महाराज आनेवाले हैं। कितना काम रहता है। अगर बुलाएँ तो?"
"अरीं बेवकूफ़ अब कौंन बुलाएंगे? सभी का मन महाराज की ओर है। ठीक है। महीनों बीत गये हैं, मिलन की इच्छा का होना सहज ही है। इतनी जल्दी क्या थी आने के लिए, इस महाराज को? अब तो आगे से हम यहाँ नहीं मिल सकेंगे।"
"जितना प्राप्त हो उतने से खुश होना चाहिए। जो करना नहीं, वही कर रहे हैं। वह राजमोग क्या शाश्वत बना रहेगा? इतने दिनों तक जो सुख मिला उससे तुमको तृप्ति ही नहीं मिली ? अभी तक यह सय गुप्त ही बना रहा. समझो कि इसलिए हम जीवित हैं।"
"यह गुप्त रहेगा, खुलेगा नहीं।"
"अब इस बात को रहने दो। पखवारा क्यों, एक महीना ही बीत गया है। हम दोनों यहाँ मिल ही नहीं पाये। वही उस दिन से; जब तुमने दाई के पास से लाकर दया टी थी न?"
"क्या हुआ?" "दवा ली और गर्भपात हो गया।" "तो मैं जीत गया।' "इसके पाने?"
'इसके माने यह कि पण्डितजी ने रानी के लिए जो दवा दी उसे अलग निकालकर रख दी और उस दाई ने तुमको जो दवा दी वही दवा रानी को दिलवायी।"
"छि: तुम कैसे दृष्ट हो! मेरी दशा ऐसी थी. अपनी मान-मर्यादा की रक्षा करनी थी, इसलिए मैंने दवा ले ली थी। रानी को भी वह दवा दिला दी? कैसे चाण्डाल हो तुम!"
"अब कुछ भी कही, जो गाली देना है दे लो। दवा तो दे ही दी और उन्होंने ले भी ली। दवा अपना काम करेगी ही। आज या कल में दवा का परिणाम दिख जाएगा।"
"उस कपबल दाई ने किस साहस से रानी को वह दवा दी?" ''दवा देनेगले तो वैद्य थे न?"
"इसका माने हुआ, सलती वैद्य की होगी। क्या-क्या सोचा है तुमने वह दाई कैसे गयी?"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 927