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“यह भी आया है, अाते ही उसने तुम्हारे ही वारे में पूछा । तुम्हें बुलाने खुद ही आनेवाला था। मैंने ही ''यात्रा के कारण थके हुए हो, आराम करो'' कहकर उसे रोक दिया, और उससे यह कह आया कि मैं शान्तला को ख़ुद साथ लेकर आऊँगा।" मारसिंगय्या बोले।
"राजा (बिट्टिदेव) अभी लौटे नहीं। अब तक लौट आते तो कितना अच्छा होना।' शान्तलदेवी ने कहा।
"उन्हें और पहाराज को सन्देश देने के लिए आदमी भेज दिया गया है। अब जल्दी चलो, देर मत करो। नहीं तो वह रेविमच्या भागकर आ जाएगा।" मार्गसंगव्या ने कहा।
शान्तलदेवी बिट्टिगा के साथ पालकी में बैंटी और राजमहल चल दी।
''चट्टला, तुम अम्माजी का सारा सामान तैयार कर रखना, मैं मायण को भेज रहा हूँ। बाद में तुम दोनों वह सामान लेकर आ जाना। गालब्बे! गालच्चे!!''
पुकार सुनकर गालब्बे आयीं। "देखो, अम्माजी राजमहल गयी हैं। मायण आएगा। चट्टला और मायण को खिलाकर गजमहल भेज देना। तुम और लेका भोजन कर लेना। मैं राजमहल जाऊंगा। दासब्वे और बुतुगा सामान-सरंजाम ले आएंगे। उनके आते ही तुम और लेंका गजमहल पहुँच जाओगे। महामातुश्री ने दफ़्त किया है।'' इतना कहकर पारसिंगय्या राजमहल चल पड़े।
चट्टनदेवी ने कहा, "गालब्चे, रानी के मुंह में अमृत। ये महामातृश्री के सुरक्षित लौटने की वात कह ही रही थीं कि पालिक ने आकर कहा कि वे सकुशल लौट आयीं। वही हुआ न? ऐसी दवा को पट्टमहादेवी होना चाहिए था। बड़े लोगों की बेटियाँ कहकर झुण्ड के झुण्ड को रानी बनाने से क्या फ़ायदा? राजमहल का सारा किस्सा तुम जानती ही हो न? मैं यह पूछती हूँ कि वह ईश्वर भी कितना अविवेकी है। बुद्धि, शक्ति, साहस, निपुणता, विषयग्रहण करने की सूक्ष्म मति
आदि सभी बातों में बिट्टिदेवरस जी महाराज से भी अधिक चुस्त हैं। हमारी रानीजी (शान्तलदेवो उनके लिए बराबर की हैं। कैसी सुन्दर जोड़ी है। यह ! मगर जस ईश्वर ने यह ठीक नहीं किया कि बिट्टिदेवरस को पहले जनमने न दिया। ऐसा क्यों किया?"
"अकलमन्दी से ही ईश्वर ने यह काम किया है। अगर उनका जन्म पहले हुआ होता तो उन्हें इस दण्डनायक की बेटियों से शादी करनी पड़ती। इससे उन्हें अपने सारे जीवन में तकलीफ़ ही झेलतं रहना पड़ता। ऐसा न हो, इसलिए उन्हें बाद को जनमने दिया और इनसे शादी करवा दी। ईश्वर की मर्जी का हमें पता कैंस लगेगा? प्रत्येक की अपनी अपनी आशा-आकांक्षाएँ होती हैं। ऐसी दशा में ईश्वर हमें सन्तुष्ट करने के लिए कोई काम नहीं करता। उसे जो ठीक ऊंचे उसी
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 351