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पता इतनी जल्दी नहीं लग पाता । अब तो आप अपना परिचय दे सकेंगे न" . बल्लाल ने प्रश्न किया।
बह कुछ आगा-पोला करता हुआ-सा दिखा। "संकोच करने की ज़रूरत नहीं। कहिए।" बल्नाल ने कहा।
'पहले सन्निधान वैद्यजी को क्षमा करें, और गजपरिवार मुद्दा भी क्षमा करे । यह आश्वासन मिले, तव निवेदन करुंगा।"
"यद्यजी लो यहीं नहीं हैं न। क्षमा चाहते हो तो उन्हें अपनी ग़लती के बारे में स्वयं कहना होगा। यदि क्षम्य होगी तो क्षमा अवश्य मित जाएगी। उन्हें बुनवा लिया जाए।"
"नहीं, जरूरत नहीं। बेचार बहुत थक गयें हैं। उन्हें तकलीफ़ क्यों द? सभी बातें मैं खुद ह यता श्रृंगा. कहते अपने स्थाः. से बह शान्तनदेवी के पास गया और उनके दोनों पैर ज़ोर से पकड़कर निवेदन करने लगा, "रानीजी आश्वासन दें कि क्षमा कर दिया है। मैंने रानीजी से झुट कहकर धोखा दिया है, इसलिए क्षमा मांग रही हूं। झूठ कहने में मेग उद्देश्य बुरा नहीं था। यादवपुरी में ही पुझे राजा के साथ जाने की अनुमति मिल जाती ता मुझे रानीजी से झूठ बोलने का मौका ही नहीं मिलता।"
"तो...मतलब... चट्टलदेवी।" "हाँ मैं चट्टला। "क्या चट्टलदेवी है?" सबके मुँह से एक साथ निकल पड़ा।
"हाँ, मुझे कोई अन्नात शक्ति रणरंग की ओर बुला रही थी। मैंने प्रार्थना की। स्त्रियों को रक्षा के लिए प्रणबद्ध पौसलों द्वारा नारी जाति को युद्धक्षेत्र में साक्षात मृत्यु के सामने खड़ा करना असम्भव धा। राजा का आदेश था-वह नहीं हो सकता। उनकी दृष्टि से यह सही भी हैं। हममें भी कोन स्त्री होगी जो बद्धक्षेत्र में जाने को तैयार होगी? लेकिन मेरी स्थिति कुछ विचित्र ही है। अबला की हैसियत से अपना शील भ्रष्ट किया, तो बदले में मुझे जो अनुभव प्राप्त हुआ था, उसका उपयोग मैंने राज्य के लिए प्राणों की बलि टेकर भी करने का निश्चय किया । वही मैं चाहती हैं। इस काम में मुझे जो मानसिक शान्ति मिलती है वह अन्य किसी से भी नहीं मिलती। मैं अपनी शील भ्रष्ट देह को देखती हूँ तो मुझ असह्य पीड़ा होती है जिन दुष्टों ने मेरा शीलभंग किया, उनके कुतन्त्रों के मारक रूप से अपनी इस देह को समर्पित कर, उन दृष्ट शक्तियों को काट डालने का प्रयत्न मन किया है। शील भ्रष्ट होने के बाद भी पक्ष पतिता को कप-से-कम इस बात की तृप्ति है कि मैंने राष्ट्र की सेवा की। इसलिए मैं झूठ बोनकर किस्केरी से राजपरिवार से अलग होकर शत्रु-शिविर में दाखिल हो गयी। वह
311 :: पट्टमहाची शान्नला : भाम दो