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''दोनों को है, परन्तु स्त्री के लिए उससे आगे कुछ और भी है। उस तकलीफ़ को तुम क्या जानो। अभी हमल टिककर मेरे दो महीने हो गये थे। कुछ दवा-दारू करके हमल गिराया है।"
अगर वह होता तो इसे गिराने की नौबत नहीं आती-यही न? ओह, कितनी दूर की सोच रही हो! मैं समझ नहीं पाया था। सो तो ठीक, यह बताओ वह दवा तुम कैसे जान गयीं"
"मैं क्या जानूँ, यहाँ एक दाई है वही यह सब बात जानती है।" ।''तो क्या तुमने उससे कहा?"
"मैं ऐसी बेवकूफ़ हूँ? उससे दवा ली और कहा कि किसी बड़े घर स्त्री के लिए चाहिए, कुछ अनहीन हो गयी है। ए. बाकसके लिया गरे देनी पड़ी।"
“अच्छा, जाने दो; में दे दूंगा। तुम चिन्ता मत करो। बड़ों के घर का नाम बताया न? किसका बताया?"
"इस सबसे तुम्हें क्या मतलब ?' "वता दोगी तो कौन-सी ग़लती हो जाएगी." “पुरुषों का भता क्या विश्वास" ''क्या मैं ऐसा आदमी हूँ?"
"यह सवाल अपनी घरवाली से जाकर पूछो। कह दिया · नहीं कहँगी, ख़तम।"
'अच्छा, मत कहो; जाने दो।"
'अच्छा, अब फ़िजूल की बातें खूब हो लीं। मुझे जल्दी घर जाना है। देर हो गयीं तो मेरी सास खांजती हुई राजमहल पहुंच जाएगी।"
गोसा?"
उन लोगों की बातचीत वन्द हो गयी। गालब्बे दो-चार क्षण वहीं खड़ी रही। वहाँ से जल्दी-जल्दी शान्तलदेवी के पास आयी और यह सारा वृत्तान्त उसने कह सुनाया।
शान्तलदेवी बहाँ से उठकर जल्दी-जन्दी उद्यान से बाहर आयीं। बिटिगा की गोद में ले गालो उनके साथ हो गयी।
बिट्टिगा को पुनः अपनी गोद में लेकर राजमहल की ओर जाते हुए शान्तलदेवी ने गालब्बे में कहा, ''गाल: तुम इस द्वार से दूर आड़ में रहकर देखो कि वे दोनों कौन हैं?' और खुद चली गयीं।
मालब्बे उस द्वार पर आड़ में छिपकर देखती रही। थोड़ी देर बाद वह वहाँ से लौटी। शान्तलदेवी को उसने बताया, "वह आदमी उस उद्यान से बड़ी सतर्कता
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दी :: 311