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"यह सब बहुत दूर की बात है। अभी से इसकी चर्चा ही क्यों? महाराज . और मेरे मालिक सीमान्न से अभी तक लौटे नहीं । उनके बारे में कोई खबर मिली हो, तो जानने के लिए मैं आयी थी। यहाँ बातें कुछ और ही चल पड़ी।" एचिवक्का बोली।
“पनसोगे की तरफ़ गये हैं, लौटने की खबर नहीं मिली।" "इतनी दूर तक जाने की बात मालिक ने नहीं बतायी?"
स्वयं उन्हीं को मालूम नहीं था। हेमावती (नदी) के किनारे तक हो आने की बात कही थी। सुना कि पनसोगे क्षेत्र के अरिगौंड वहीं उनसे मिले और बताया कि स्वयं और राजगौंड मिलकर सोमेश्वर मन्दिर का निर्माण करवा रहे हैं। मन्दिर निर्माण का कार्य समाप्तप्राय है। इस मन्दिर में मूर्ति की प्रतिष्ठा के समारम्भ के अवसर पर पधारने की प्रार्थना उन्होंने महाराज से की है। महाराज को वहाँ उपस्थित रहना है तो मन्दिर को पर्याप्त मात्रा में विस्तारवाला व विशाल होना चाहिए। यही सोचकर वहाँ देख आने गये हैं, दण्डनाथ जी भी साथ गये हैं।" शान्तला ने बताया।
"मन्दिर देखना शायद बहाना है। शायद वहाँ चेंगाल्वों का जाल फैला होगा, और यह बात प्रकट भी हुई होगी। स्वयं देख-समझने के लिए गये हैं। किसी कोने में बनं एक मन्दिर में मूर्ति-प्रतिष्ठा के समारम्भ के लिए महाराज को क्यों जाना चाहिए" एचियक्का बोली।
“दण्इनायिका जी ने बड़ी सूझ की बात कही है।"
"तो युद्ध सन्निहित...'' एचियक्का बोल ही रही थी कि बीच ही में शान्तला ने मुँह पर उँगली रख संकेत किया। एचियक्का मौन हो गयी।
"माँ, मां" आवाज निकट होती आयीं। चट्टला के साथ बिट्टिगा आया।
'टण्डनायिका के मुंह से कोई युद्ध की बात निकली-सी सुन पड़ी। फिर कोई युद्ध है? किसी तरह के संकोच के बिना चट्टला पूछ बैठी। ___ "ओह, वही इस छोटे बिट्टिगा की बात। जब इसकी माँ ने इसे राजपरिवार को सौंपा तब उन्होंने यह इच्छा प्रकट की थी कि इसे अच्छा वीर योद्धा बनाना है। मैं दण्डनायिका जी से कह रही थी कि राज्याधिकारियों के बच्चों के साथ इसे भी डाकरस जी द्वारा ही युद्ध-शिक्षण दिलवाया जाय।"
"युद्ध की बात सुनते ही मेरे कान खड़े हो गये। आप महाराज से कहिए कि यदि युद्ध हो तो उसमें मेरी सेवाओं का उपयोग भी किसी तरह से करें।" चट्टला बोली।
शान्तला ने कहा, "ठीक है।" तब तक बिट्टिगा शान्तला की गोद में चढ़ आया था। उसे देख चट्टला बोली,
286 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो