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की सन्तान होकर इन बहिनों में आपस में आत्मीय भाव न हो तो महाराज की क्या हालत होगी अधिकार और पद के मोह में पड़ने पर ही मन कलुषित होकर विरसता पैदा करता है। इनकी माँ के कारण एक अनिरीक्षित घटना ही घट गयी। जैसे-तैसे उसे ठीक किया गया। और फिर, इन्होंने प्रेम व्यक्ति से किया न कि उसके पद या अधिकार से । ''मुझे वे स्वीकार कर लें यहीं पर्याप्त है। मुझे रानी न कहें तब भी कोई दुःख नहीं होगा। यदि वे मुझ पर कृपा नहीं करेंगे तो मैं बनूंगी नहीं"-चों गिड़गिड़ानेवाली वह पटाना अब आनी डी दहिन कर रही है! उस बहिन की स्वीकृति से ही तो यह पट्टमहिषी बनी। यों ये आपस में ईर्ष्या से अपने मन मैले कर लें तो उस व्यक्ति को, जिन्होंने इनसे विवाह किया है, सखी कैसे बना सकती हैं? इस स्थिति को बढ़ने नहीं देना चाहिए। इसको रोकने के लिए कुछ-न-कुछ करना ही होगा। महाराज की मानसिक शान्ति और सुख-सन्तोष राष्ट्रहित की दृष्टि से बहुत ही आवश्यक है। महामातृश्री यदि यहाँ होती तो ऐसी बातों के लिए मीका ही नहीं मिलता। राजपरिवार हमारे परिवार के साथ जो आदर-भाव रखता था उसे सही रूप में न लेकर, स्वार्थवश उसके पनमाने अर्थ लगाकर दण्डनायिका ने क्या-क्या नहीं किया? पृष्ठभूमि में विचार करने पर पद्मलदेवी के स्वभाव में उनकी माँ के इन्हीं गुणों का प्रभाव विशेष रूप से लक्षित होता है। में पट्टमहिषी हूँ, मेरी कोख से उत्पन्न पुत्र को ही राजगद्दी मित्ननी चाहिए. बों चाह रखना एक स्वाभाविक बात है। परन्तु उसे यह कैसे भरोसा है कि उसकं लड़का ही होगा। अच्छा, इस बात को जाने दें। अब गर्भवती चोप्पदेवी की सन्तान लड़का ही होगा-इस बात का भी क्या भरोसा है? यदि कभी महाराज ने यों ही यह बात कही हो कि मेरी प्रथम सन्तान ही भावी महाराज होगी तो यह समस्या भी तब उठेगी जब ऐसा मौका आएगा। राष्ट्र का हित चाहनेवाले बुजुर्ग परम्परागत रीति की दृष्टि से जैसा निर्णय करेंगे वैसा मान लिया जाए तो बात यहीं समाप्त हो सकती है। राजगद्दी पर बैठने के लिए प्रभु एरेयंग के साथ स्पर्धा करनेवाला कोई नहीं था। फिर भी पट्टाभिषिक्त होने का सुयोग उन्हें प्राप्त नहीं हुआ। यह समझकर कि सब-कुछ हमारे ही हाथ में है, हम कुछ-का-कुछ सोचकर तरह-तरह ही कल्पना कर बैठें तो क्या हालत होगी? इसलिए युद्धक्षेत्र से महाराज के लौटने पर, सबको आमने-सामने बैठाकर उस सम्बन्ध में खुलकर वार्ता हो जानी चाहिए। तब तक महामातृश्री भी पधार जाएँ तो कितना अच्छा रहे! हे अहंन्, सब शीघ्र एक साथ मिलें ऐसा समय जल्दी आए। राजमहल में जो मनमुटाव का वातावरण उत्पन्न हो गया है इसे अब और नहीं बढ़ने देना होगा। यदि मैं राजमहल में ही रह जाऊँ तो शायद इसे आगे न बढ़ने में सहायता मिल सकती है। पिताजी को राजमहल की इस परिस्थिति का परिचय दे दूँ तो वे इसे अन्यथा
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 109