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जाएगा तो फिर उसी को भेज देंगे।"
"अगर वह न आया तो?" "तो फिर रायण को भेज दीजिए।'
"रायण को भेजना तो मेरे हाथ की बात है। मायण को भेजना हो तो माचण दण्डनाथ से कहकर ही भेज सकते हैं।" मारसिंगय्या ने कहा। ___ "मैं खुद उन्हें ख़बर कर दूंगी। मावण ही जाय, नहीं रायण ही सही। मैं दण्डनाथ जी से कह दूंगी।"
"ठीक, तब मैं चलूँ?" "अच्छा अप्पाजी।"
मारसिंगय्या चले गये। इसके बाद एथिक्का ने कहा, “जब आप लोग यातचीत कर रहे थे तब बीच में बोलना उचित न था। समझ लीजिए कि जैसा मायण ने कहा, चट्टला ने रानीजी से अगर झूठ ही कहा हो तब क्या करेंगी? मैं तो अपढ़ हूँ। लोगों के साथ सम्पर्क भी कम है। मगर मेरे मालिक एक बात कहते रहते हैं : 'दुनिया में बहुत भले को देखना हो तो स्त्री में ही देख सकेंगे। और बड़ी से बड़ी बुराई देखना हो तो उसे भी स्त्री में ही देख सकेंगे। पति को जहर पिलाकर, मृत्यु की पीड़ा का अनुभव करते रहनेवाले पति के सामने ही पराये के साथ हँसती स्त्री को उन्होंने देखा है...इसलिए...' " बात आगे कहनेवाली ही थी कि बीच में ही शान्तलदेवी बोल उठी___ "इससे यह कहना ठीक नहीं कि चट्टला भी उसी तरह की है। उसकी इच्छा के विरुद्ध उसका शील भ्रष्ट हुआ फिर भी वह शीलभ्रष्टा नहीं है। वह ऐसा निन्दनीय व्यवहार करेगी-इस निर्णय पर पहुँचना ठीक नहीं है। पुरुष की दुर्दयनीय प्रवृत्ति के कारण परेशान होकर स्त्री अपने जीवन को बिगाड़ लेती है। बिगाइनेवाले पुरुषों के ही कारण स्त्री बिगड़ती है न? दोष किसका? अबला स्त्री का या उसे बिगाइनेवाले पुरुष का? आपको चट्टला का पूरा किस्सा मालूम नहीं, दण्दनायिका जी। वह एक विशिष्ट व्यक्तित्व वाली स्त्री है। जीवन में बहुत अन्याय का शिकार बनी है। उस अन्याय की स्मृति ही उसके जीवन की समस्त पीड़ा है, जीवन में व्याप्त दुःख है। उसके जीवन की कहानी को जो जानते हैं, उनका कर्तव्य है कि उसके उस दुःख को भुलाने का यत्न करें। अब उसके बारे में चर्चा काफ़ी हो चुकी। उसके किक्केरी से यहाँ पहुँचने तक राजमहल में उत्पन्न इस द्वेष, ईर्ष्या से कलुषित वातावरण के विषय में कुछ तहकीकात करें। यह जानने की कोशिश करें कि ऐसा कलुषित वातावरण बनाने के पीछे किसी का हाथ है या नहीं। अब चलिए, भोजन का समय हो आया।" शान्तलदेवी कहती हुई वहीं से उठीं। रानियों को भी साथ लिया और भोजन- करने चली गयीं।
308 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो