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और अब तुम यों कह रहे हो? या टोक नहीं :"
"अगर वह मेरी इच्छा के अनुसार मेरे साथ रहती तो अच्छा था। उसके इनकार करने का कारण ही कुछ और है। पत्नी कहकर वह बन्धित रहेगी तो उसे अभिलषित स्वाद मिलेगा भी कैसे? सन्निधान ने उसके गुजर-बसर की व्यवस्था भी कर दी है। इससे उसे स्वेच्छाचारी बनकर रहने का मार्ग मिल गया। किसी के आश्रय में रहने की जरूरत ही नहीं रह गयीं उसे। इसलिए बुजुर्गों ने कहा है-'न स्त्री स्वातन्त्र्यमहंति'-स्त्री को स्वतन्त्रता नहीं देनी चाहिए।" ___“किसी बात को लेकर, किसी और बात के साथ तुलना करना उचित नहीं। अभी हमारे सामने इस सिद्धान्त का प्रश्न नहीं हैं। तुमसे इस बात पर बहस करने का प्रयोजन भी नहीं। सारांश यह निकला कि तुम्हें जाने की इच्छा नहीं। घोड़े को घास जबरदस्ती नहीं खिलाया जा सकता, यह मालूम है। जाओ, तुम अपने काम पर जाओ। मैं कुछ दूसरी व्यवस्था करुंगी। जब तुम्हारा यह सिद्धान्त ही है कि स्त्रियों को स्वतन्त्रता नहीं देनी चाहिए, तब तुम मेरी बात ही क्यों मानोगे, मैं भी तो स्त्री हूँ।" शान्तलदेवी ने कहा।
"न, न, मैंने रानीजी को दृष्टि में रखकर यह बाल नहीं कहीं। मैं ही जाऊंगा।" ___ "इस तरह घुमाव-फिराव की ज़रूरत नहीं। पुरुष के लिए स्त्री एक मोग्य वस्तु है. उसे न स्वतन्त्रता है, और न अभिलाषा ही। रहना भी नहीं चाहिए। वह तो पुरुष के सुख की ही सामग्री है। पुरुष उसे जैसा नचाए वैसा नाचती रहे। पुरुष लात भारकर उसे बाहर कर दे तब भी उसे मूक बनकर रहना चाहिए। उसने कुछ किया हो या न किया हो. पुरुष जो भी आरोप लगाए उन सभी को मुँह बन्द करके चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए-यही, इस तरह के विचार ही हमारे समाज के लिए कण्टक से बने हुए हैं। तुम जैसे पुरुष ही इसका कारण हैं। तुम जा सकते हो। पोयसलों का राजमहल अनाथ नहीं है। अभी धर्मश्रद्धा रखनेवाले, राष्ट्र के प्रति निष्ठा रखनेवाले, दूसरों पर गौरव रखनेवाले, स्त्री के लिए स्थान-मान की जरूरत समझनेवाल असंख्य पुरुष राजमहल के सहायक बने हुए हैं।''
मायण मूक बनकर ज्यों-का-त्वों खड़ा रहा।
"क्यों खड़े हो? तुम जा सकते हो। पोय्सल रानी के साथ रहनेवाली एक दासी के सम्बन्ध में कोई खबर नहीं मिली। उसका पता लगना चाहिए। पता न लगे
तो राजपरिवार बदनाम होगा, अन्तःपुर वदनाम होगा। ऐसा नहीं होना चाहिए। . जाने को कहने पर भी न जाकर, अपनी ही बात को ठीक मानकर, उसी की स्ट
लगाये बैठे हो! तुममें स्त्री की मान-मर्यादा की रक्षा करने की कर्तव्य-निष्टा ही नहीं। न ही तुम पुरुष का धर्म जानते हो। अप्पाजी, हमारे रायण को भेज दीजिए।
306 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो