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बड़ी सेना लेकर आ रहा है। सुनते हैं कि वह हमारे राज्य पर हमला करने के - इरादे से आ रहा है। छोटे अप्पाजी ने और सेना भिजवाने की ख़बर भेजी है । विलम्व नहीं किया जा सकता। तुरन्त व्यवस्था करनी थी। अब कल मैं स्वयं सेना लेकर उनकी मदद के लिए जा रहा हूँ ।"
"हमारे भैया को भेज देंगे लो नहीं बनेगा "
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"युद्ध में विजय पाने की दृष्टि से तो काफ़ी है। परन्तु अप्पाजी अभी नवविवाहित हैं। उनको युद्धक्षेत्र में भेजकर मैं यहाँ रनिवास में पेश करता पड़ा रहूँ तो लोग क्या कहेंगे? उसे भी कैसा लगेगा? हम जाएंगे तो उसे कितना आनन्द होगा जानती हो? ऐसे ही वक्त पर वास्तव में भ्रातृवात्सल्य प्रकट होता है सुख-दुःख में भागी बनें तभी भ्रातृत्व का मूल्य हैं।... मैंने जाने का निश्चय किया है " "जिस तरह आप भाई-भाई वात्सल्यपूर्ण व्यवहार करने में तत्पर हैं वैसे ही हम बहिनें भी रहें तो कितना अच्छा हो। इन परिस्थितियों में शान्तलदेवी यादवपुरी में अकेली क्यों रहें: क्यों न उन्हें यहीं बुलवा लिया जाय "
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" देवी का सोचना भी ठीक है। वही करेंगे। अब देर हो गयी, सोएँ ।" शान्तलदेवी के जाने के भरोसे से बोप्पदेवी की जल्दी ही नींद लग गयी बल्लाल को जल्दी नींद नहीं आयी। उनके मन में कुछ शंका उत्पन्न हो गयी । शान्तलदेवी के बुलवाने के औचित्य पर उन्हें जब विश्वास का भाव जमा तो उन्हें भी नींद आ गयी ।
दूसरे दिन प्रातः उठते ही महाराज ने बिट्टिदेव के पास पत्र लिख भेजा। उसमें लिखा था "स्वयं अपने नेतृत्व में सेना के साथ हेमावती को पार करके मल्लिपट्टण पहुँचूँगा । यादवपुर से निकलकर तुम भी सीधे पहुँचकर मिलो । युद्ध सम्बन्धी आगे के कार्यक्रम पर वहीं निर्णय करेंगे। इस वक्त अकेली शान्तलदेवी का यादवपुर में रहना ठीक नहीं। उन्हें और दण्डनायिका एचियक्का - दोनों को आवश्यक आरक्षण दल के साथ तुरन्त राजधानी को रवाना कर दें।"
तदनुसार शान्तलदेवी, एचिवक्का दोनों ही बिट्टिगा और मरियाने भरत को साथ लेकर दोरसमुद्र चल देने को तैयार हो गयीं। रास्ते में बेलुगील जाकर बाहुबली स्वामी के दर्शन कर अपने गुरुजी का कुशल जानने और वहाँ से दोरसमुद्र पहुँचने के अपने मन्तव्य को बताकर शान्तलदेवी ने बिट्टिदेव से अनुमति ली । साथ ही, अपनी माता के तीर्थयात्रा पर जाने के कारण पिता के साथ तब तक रहने की भी अनुमति ले ली जब तक यहाँ से बुलावा न आए।
292 : पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो