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“अभी जो असीस दिया, इसके लिए मुंह मीठा कर लें। बाकी यातों पर फिर विचार करेंगे।" ऋहती हुई घण्टी बजाने को उठी ही थी कि इतने में शान्तला ने कहा, "मिठाई सभी मिलकर पटगनी के साथ ही खाएँगी। इस खुशी की प्रथप अधिकारिणी तो पटरानी जी हैं। और फिर वे आपकी बष्टी दीदी जो ठहरौं।'
घोप्यदेवी कुछ निराश-सी हो गयी। कुछ कहा नहीं। उसके मुख की वह पुग्ध छबि कुछ-कुछ म्लान-सी दिखी।
"क्यों मुझसे कोई गलती हो गयी?" शान्तलदेवी ने पूछा। ''नहीं दीदी, आपका कहना ठीक है। परन्तु ऐसा हो नहीं पाएगा।" बोप्पटवी ने कहा।
आपको ऐसी बात नहीं करनी चाहिए। पटरानी जी आपको बहुत प्यार करती हैं। खासकर लव से जय दण्डनायिका जी का स्वर्गवास हुआ। उनकी यही अभिलाषा रही कि माँ से भी बढ़कर वाप्पि की देखभाल होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में आपकी इस तरह ही आशंका मेरी समझ में नहीं आती। क्यों? कोई ऐसी बात चली है क्या:" शान्तलदंबी ने पूछा।
"कह नहीं सकती, ऐसी कोई बात चली। फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि उनसे पहले मैं माँ बननेवाली हूँ-यह उनके लिए अच्छा नहीं लगा है।
"ऐसा उन्होंने कहा?"
''कहेंगी: व्यवहार से पता चलता है। अगर मुझसे कोई गलती हो गयी हो तो मैं अपने को सुधार लूंगी। वे बड़ी हैं। मुझे चपत लगाकर ग़लती को मुंह पर बता सकती हैं। परन्तु इस तरह के व्यवहार को कौन सह सकती है।"
"आपके मन में से विचार उठने का कुछ कारण भी तो होगा?"
"धातें हुई : तन्निधान के समक्ष ही बातें हुई । क्या बातें हुई उन्हें ज्यों-का-त्यों बता दूंगी।" कह उस दिन अमराई में जो-जो बातें हुई थीं, बोप्पदेवी ने उनसे लेकर गर्भवती बनने तक सब-कुछ विस्तार से कह सुनाया।
“ऐसी छोटी-सी बात को इतना बड़ा नहीं बनाना चाहिए।'
"मैं यह नहीं चाहती। उस दिन सन्निधान ने बताया कि यह सव हँसी-दिल्लगी की बातें हैं। मुझको चिढ़ाने के लिए कही गयी हैं. वहीं मैं समझती घो। सन्निधान वहीं उपस्थित रहते तो क्या होता, कह नहीं सकती। चंगाल्यों के साथ के युद्ध का मेरे गर्भवती होने से क्या सम्बन्ध है, आप ही कहिए दीदी? कहने लगो : मेरे पेट में पिता को निगलनेवाला भूत है, इसलिए यह बुद्ध छिड़ा हैं। ऐसी बात को मैं कैसे सह सकूँगी" कहती हुई बोपदेवी रो पड़ी।
"आए ऐसा क्यों सोचती हैं। रोना नहीं चाहिए। विशेषकर इन दिनों में आपके मन में किसी तरह के बुरे भाव नहीं आने चाहिए। इन सारी वातों का
पट्टमहादेवी शान्तता : भाग दो :: H!