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डाकरस ने चादवपरी पहँचने के थोड़े ही दिनों बाद वहाँ से खबर भेजी कि उधर चेंगाल्वों में युद्ध की तैयारियाँ तंज्ञी से शुरू होने लगी हैं। इसलिए इस तरफ़ हमें अपनी शैन्य शक्ति को बढ़ाना आवश्यक है।
खबर सुनते ही बालाल ने कहा, ''मैं स्वयं वहाँ जाऊँगा।"
बिट्टिदेव ने कहा, "सन्निधान की दोरसमुद्र में ही मुकाम करना चाहिए। यादवपुरी में मेरा रहना ठीक होगा। आज न सही, कल उस जगह को प्रबल राजधानी के रूप में परिवर्तित करना ही होगा। इसके अलावा चेंगाल्चों को इधर बढ़ने से रोकना ही नहीं, उन्हें दवाना भी होगा। इसके लिए आवश्यक योजना तैयार कर ली जाएगी।" ___अभी नवविवाहित हो, तुम्हें अभी वहाँ नहीं जाना चाहिए।'' वरलाल बोले।
''मैं अकेला नहीं लगना। शन्नता भी सा: देगी . छोड़ जाने के लिए तो विवाह नहीं किया न!" कहते हुए विहिदेब मुस्कुरा दिये।
प्रधानजी तथा अन्य मन्त्रियों के साथ विचार-विमर्श हुआ और बिट्टिदेव की सलाह के अनुसार ही निर्णय ले लिया गया।
हेगड़े दम्पती दोरसमुद्र में ही ठहरे। उनकी सेवा के लिए अब फिर से लेंका और गालब्बे तैनात कर दिये गये। बुतुगा और दासब्बे यादवपुरी चले गये। रेविमय्या महामातश्री की सेवा में बोम्मला के साथ दोरसमद्र में ही ठहर गया। शान्तला की राय चट्टला को साथ ले जाने की थी इसलिए वह भी यादवपुरी चली गयी। बिटिगा भी शान्तला के साथ यादवपुरी पहुँच गया।
इन नवविवाहितों के आनन्दमय जीवन में यह बालक एक बाधा बन गया-यह सोच एचलदेवी परेशान हुई। परन्तु शान्तला ने ही समझाया कि जब चट्टला और दासब्जे मौजूद हैं तो वाधा किस बात की।
बिट्टिदेव यादवपुरी पहुँचकर वहीं सुनियोजित ढंग से कार्यनिरत हो गये।
इधर पचलदेवी ने फिर से तीर्थयात्रा की वात उठायी। बल्लाल को मना लिया गया। दो नौकरानियों और सवार वीरप्पा तथा दो-चार सिपाहियों को साथ लेकर वे यात्रा पर चलने को तैयार हो गयौं। महामातृश्री का साथ देने के इरादे से हेगड़ती माचिकब्ध भी चलने को तैयार हो गयी थीं। यह बात्रा-संघ भी दोरसमुद्र से रवाना हुआ। ___ भविष्य को दृष्टि में रखकर राजमहल का विस्तार किया गया था। परन्तु अब वहाँ थोड़े ही जन रह गये थे।
बल्लाल के जन्मदिन समारोह पर यादवपुरी से विट्टिदेव आदि सभी आये थे। इस समारोह का यह पहला अवसर था जब मातृश्री की अनुपस्थिति खटक रही
थी।
282 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो