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नहीं रहा तब मौन रहकर दिन व्यतीत करते रहने के सिवाय करती ही क्या? हो सकता है अनेक रानियों के होने पर मुझ अकेली का न होना उन्हें खटकेगा नहीं। परन्तु मैं भारतीय नारी हूँ। हमारा वही विश्वास है कि पति ही सती के लिए परमदेव हैं। स्वयंवर के पर सला पहा मी स्वयं को समर्पित का दिया। तब उनके ऐसा कहने मात्र से उनसे दूर होना मेरे लिए ठीक होगा? नहीं। चाहे ठीक लगे या न लगे मुझे वहीं जीना होगा। दूसरा चारा नहीं।"
एक क्षण रुककर श्रीदेवी ने आगे कहना आरम्भ किया, "यहाँ जो भी होता था वह सब गुप्तचरों से मालूम हो जाता था। एरेयंग प्रभु के पट्टाभिषेक समारम्भ के आमन्त्रण के बाद, वहाँ से कोई आमन्त्रण हमें नहीं मिला । हम उसकी प्रतीक्षा भी नहीं कर सकते थे। यहाँ जो भी कार्य सम्पन्न हुए, प्रत्येक की खबर मिलने के साथ उनका क्रोध बढ़ता ही गया है। जग्गदेव की हार पर तो चक्रवर्ती और अधिक बिगड़े हैं-ऐसी हालत में मेरे यहाँ आने और आप लोगों से मिलने की बातों की मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी-यह स्पष्ट मालूम था। मैं क्या करूँ? मुझे यहाँ मैत्री, मिलनसारी और विश्वास भी है। लेकिन चक्रवर्ती को... उनको यह सब नहीं चाहिए। आपके महाराज का जब विवाह हुआ तब मेरा जयकर्ण एक साल का था। इसके बाद अचानक ही मेरा मन इधर आने को करता ग्रहा। मैं सोचने लगी कि दोरसमुद्र के राजमहल में बिट्टिदेव का विवाह कब सम्पन्न होगा? होगा तो किसके साथ होगा? बहुत समय से मेरी यही चाह रही कि हो तो इन्हीं दोनों का विवाह हो। राजनीतिक परिस्थितियाँ कब कौन-सा करवट ले लें, कौन जाने! हो सकता है मेरी चाह चाह ही रह जाय। ऐसी परिस्थिति की सम्भावना से मैं परिचित भी थीं। परन्तु मेरे अन्तः के प्रेम एवं वात्सल्य भाव को कौंन रोक सकता था? हाँ, देह को बाँधकर रखा जा सकता है। यही धारणा मेरे मस्तिष्क में व्याप गयी थी। मैं कछ भी कर नहीं सकती थी। ऐसी हालत में मुझे एक दुःखद समाचार मिला; मेरा मन उस ओर चला गया। समाचार मेरे पूज्य पिता मारसिंग प्रभु के बारे में था, वे मृत्यु शैया पर थे। चक्रवती की अनुमति पाकर मैं पितृचरण को देखने आयी। पितृचरणों का अन्तिम दर्शन पूर्वपुण्य से मिला। वहीं आपका आमन्त्रण भी मिला। आमन्त्रण मेरे लिए नहीं, करहाट के शिलहार महाराज के लिए था। आमन्त्रण देखकर आमन्त्रित के बदले मैं श्रीदेवी चली आयी, वधू की फूफी। पिरियरसी तो आ नहीं सकती थीं। उन्हें आमन्त्रण भी नहीं। श्रीदेवी पर रोक कौन लगाए? यह विवाह समारम्भ तो उसी के घर का कार्य है, यही समझकर चली आयी।
"ईश्वर ने मेरी अभिलाषा पूरी की। मेरे यहाँ आने की बात कल्याण तक न पहुँचे-यही इच्छा है। मुझे इस बात का विश्वास था कि बिन बुलाये आने पर
280 :: पहमहादेवी शान्तला : भाग दो