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बल्लाल के विवाह के बाद, उत्कल के नाट्याचार्य काफ़ी भारी मात्रा में गुस-दक्षिणा प्राप्त कर अपने देश प्रस्थान कर चुके थे। बोकिमच्या हेगड़ेजी के अहाते में ही रहे। बल्लाल जव बेलापुरी गये थे तो उनके साथ नागचन्द्र और रानियों की शिक्षिका दोनों भी वहाँ गये थे और फिर दोनों ही उनके साध यहीं आ गये। जग्गदेव के साथ हुए युद्ध के समय में नागचन्द्र काव्य-रचना के कार्य में लगे हुए थे। विराम के समय दण्डनायक के घर की शिक्षिका को अपना नवनिर्मित कान्य पढ़-सुनाकर उनकी सलाह भी लिया करते थे। उनकी दृष्टि में वह शिक्षिका अधिक प्रतिभावती थी इसलिए दोनों में परस्पर सद्भावना दृढ़ हो गयी थी। कभी-कभी चोकिमच्या भी इस काव्यवाचन को सुनने के लिए शामिल हो जाया करते।
विवाह के बाद शान्तला के बिट्टिदेव के साथ यादवपुरी चले जाने पर कवि बोकिमय्या और शिल्पी गंगाचार्य दोनों, हेग्गड़ेजी से अनुमति लेकर बेलुगोल चले गये थे, इस इरादे से कि वहीं शेष जीवन व्यतीत करेंगे। ___ इस स्थिति के कारण अबकी बार जन्म-दिनोत्सव में कुछ कमी महसूस हो रही थी।
नागचन्द्र का काव्य समाप्तप्राय था, वलाल को यह बात मानूम थो! बिट्टिदेव के आते ही उनसे बोले, "हम अपने गुरुवर्य को क्यों न आस्थान कवि बना दें: __ बिट्टिदेव बोले, "बहुत पहले ही यह कार कर लेना था। शुभस्य शीघ्रम् ।'' बिट्टिदेव ने तुरन्त सहमति दे दी।
कवि नागचन्द्र को सूचित किया गया। उन्होंने निवेदन किया. ''ग़ानियों की गुरु और शिक्षिका मुझसे भी अधिक प्रतिभावती हैं, उन्हें भी राजसभा की आस्थान कवयित्री बनाएँ तो अच्छा होगा।'
"नाप-धाम कुछ भी तो पता नहीं, उन्होंने यह कुछ नहीं बताया।"
"प्रतिभा प्रतिभा ही है। जीवन से अनासक्त होकर सभी व्यावहारिक बातों से निर्लिप्त हो जाने मात्र से क्या प्रतिभा का सम्मान न हो?"
उन्हें भी बुलवाकर सूचना दी गयी।
उन्होंने कहा, ''मुझे किसी भी तरह की अभिलाषा नहीं । यदि प्राज्ञ चाहते हैं तो इनकार नहीं कर सकती; इससे मेरे छात्रों को सन्तोष मिलता हो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं। सन्निधान की इच्छा का मैं विरोध नहीं करूंगी।" ''राजसभा में इस बात की घोषणा करनी होगी तो कोई नाम भी चाहिए न?"
"मैं एक 'क्रन्ती हूँ। 'कन्ती' का अर्थ होता है भक्त्त। 'कन्नी' कहकर घोषित कीजिए। एक "भक्ता' कहने पर लोग मानेंगे नहीं।''
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग टी :: 28s