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हार न मानकर अपनी शक्ति यी हैं ! हमारी मदद चालुक्यों के लिए हर समय रहेगी और उनकी मदद हमारे लिए है-यह मालूम होने पर मलेप, चेंगाल्य, कोंगाल्व सय जहाँ-के-तहाँ चुप हो जाएंगे। ऐसा करना बुद्धिमत्ता है या नहीं, तुम सोच देखो।" मारसिंगच्या ने कहा।
शान्तला ने तुरन्त कोई उत्तर नहीं दिया। पिता की चिन्तन-धारा कितनी व्यापक है. यह समझकर एक प्रशंसा की झलक के साथ पिता की ओर देखा। थोड़ी देर बाद बोली, "अप्पाजी, इस दृष्टिकोण से प्रभुसत्ता ने विचार नहीं किया। फिर एक बार इस बारे में उनसे विचार-विपर्श करना अनुचित न होगा।"
"में ही बात छहूँ या तुम छेड़ोगी?"
"आप द्वारा बात छेड़ना ही उचित है। बात करने के विषय में आप यदि निर्णय करते हैं तो इसमें विलम्ब न करें। आमन्त्रण उनके पास पहुंचे और वे आने का पन करें-इस सबके लिए समय भी तो रहना चाहिए।"
"ठीक है, आज ही दोपहर को विचार प्रस्तुत करूँगा।" कहकर हेग्गड़े चुप हो गये।
"इसी के लिए मुझे बुलवाया?"
"विवाह के अवसर पर अपनी तरफ़ से देने के लिए एक अंगूठी और एक हार लाया हूँ। तुम अगर पसन्द करो तो रखेंगे, नहीं तो दूसरा बनवाएँगे। आओ" कहते हुए अपने कमरे की ओर चल दिये।
''माँ नहीं देखना चाहेंगी?" शान्तला ने पूछा। "उन्होंने देख लिया है।"
अपने कक्ष में पहुंचकर हेग्गड़े मारसिंगय्या ने उन दोनों चीजों को शान्तला को दिखाया। अँगूठी में नील पत्थर जड़ा था, लाल मणियों से मयूराकार बना था।
और कमल के आकार के मणियों में जगमग पदक हथेली के बराबर चौड़ा था हार में। नवरत्न खचित पदक में विकसित कमल बने थे। दोनों चीजें शान्तला को पसन्द आ गयीं। उन्हें सुरक्षित रखकर मारसिंगव्या राजमहल की ओर चले गये।
महामातृश्री और बिहिदेव के बीच आमन्त्रण-पत्र भेजने के विषय में एक बार चर्चा चल चुकी थी। वह निर्णीत विषय मातृश्री द्वारा फिर उठ खड़ा हुआ देख बिट्टिदेव संकोच में पड़ गये। ठीक इसी वक्त द्वारपाल ने आकर निवेदन किया कि हेग्गड़े मारसिंगय्या जी महामातृश्री के दर्शन करना चाहते हैं। तुरन्त उन्हें अन्दर बुला लिया गया । नमस्कार-प्रतिनमस्कार के बाद, मारसिंगच्या एक आसन पर बैठ गये। उनके बैठते ही बिट्टिदेव ने, "आप ठीक समय पर आये हैं। हमारे सामने जो
पट्टमहादेची शान्तला : भाग टी :: 275