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मैं पूर्ण करता तो उसका कुछ और अर्थ हो जाता, ग़लतफ़हमी हो जाती। दोनों के मन में कटुवापन रह जाता। अब जो विश्राम आफ्को वास्तव में मिलना चाहिए उसे देने को शासन तैयार है, विश्राम-वेतन के रूप में आपको सिन्दगेरे की जागीर दी जाती हैं।" बल्लाल ने कहा।
चामब्बे जीवित रहती तो कितना खुश हुई होती।
बल्लाल के विवाह के बाद राजमहल के वातावरण में शान्ति फैल सची थी। जब बड़ी दीदी पद्यलदेवी को पटरानी घोषित किया तो रानी चामलदेवी और रानी बोप्पदेवी-दोनों को कोई परेशानी नहीं हुई। कुछ धार्मिक कार्य के अवसर पर पटरानी के लिए अग्रस्थान देना रुविंगत व्यवहार था। सिवाय इसके बल्लाल के उन जीवन-संगियों में कोई अन्तर नहीं दिख रहा था। अपने-अपने जीवन में समरसता ताने के लिए सबने महाराज को सुखी रखा था।
एक तरह का समाधान एचलदेवी को भी पिल गया था। किसी नयी समस्या के बिना चामब्बे दण्टनायिका की अन्तिम इच्छा पूरी हो गयी थी।
पूस के समाप्त होने के पहले एक दिन पचलदेवी ने बल्लाल के पास अपनी तीर्थयात्रा की बात छेड़ी।
आपकी छाया में हम सुखी हैं। आप बुजुर्ग रहकर सदा हमें दिशानिर्देश देती रहेंगी तो अभी जो सुख-सन्तोष है वह ज्यों-का-त्यों बना रहेगा। किसी एक क्षेत्र की यात्रा कर लौटने की बात होती तो हम मान लेते। भारतवर्ष के सभी तीर्थों का सन्दर्शन कर लौटना हो तो कई साल ही लग जाएंगे। इस उम्र में इतना श्रम-यह हमें कुछ ठीक नहीं लगता!" बल्लाल ने कहा।
"शाश्वत क्या है? अपने जीवन में मैंने सुख-दुःख दोनों भोगे हैं। तुम सबकी देखभाल करते हुए राष्ट्र की उन्नति के सम्पूर्ण म्वाम्य तुम लोगों को दिला देने सक की जिम्मेदारी प्रभुजी ने मुझे सौंपी थी। पट्टाभिषेक को हुए एक वर्ष बीत गया। एक मीषण युद्ध में तुमने विजय प्राप्त की। तुम्हारे दायें हाथ जैसे दक्ष भाई तुम्हारे साथ हैं। अपनी इच्छानुसार विवाहित होकर तुम गृहस्थ भी हो गये। मुझे अब यहाँ रहकर कुछ करना भी नहीं है। अगर यह तुम समझते हो कि मुझे भी विश्रान्ति की ज़रूरत है तो मुझे सम्मति दो। सब झंझट भूल-भालकर मानसिक शान्ति पाने में मेरी मदद करो।"
"तो क्या वहाँ अब तक वह मनःशान्ति नहीं रही, माँ"
"नहीं रही, यह तो कह नहीं सकती। फिर भी प्रभु से बिछुड़ने के बाद से मुझे वास्तव में शान्ति नहीं ! उन्होंने जो जिम्मेदारी मुझे सौंपी थी उसके निर्वहण
264 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दा