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बिहिदेव का जन्मोत्सव पनाने के बाद महाराज बल्लाल फिर बेलापुरी चले गये। . पत्नियों के सन्तोष के अनुरूप एक नियोजित ढंग से बल्लाल का जीवन सुखमय वातावरण में व्यतील होने लगा। एक दिन महाराज यगची नदी के तीर की अमराई पर पत्नियों के साथ गये। शाम की ठण्डी हवा, नयी-नयी निकली कोंपल, आम्न मंजरियाँ, गच्छों में लटकती आमियों-सबने मिलकर अमराई को एक नयी शोभा से अलंकृत किया था। नदी को सीढ़ियों से सटकर एक सुन्दर मण्डप बना हुआ या। इसमें सुखासीन होकर सबने उपाहार किया। वसन्त का समय था। वर्षा में अंग भरकर बहिनेवाली नदी तब मानो अपने सम्पूर्ण यौवन को आम मंजरियों में बाँटकर खुद पतली हो गयी थीं। इस अमराई के भरे सौन्दर्य को देखकर विस्मृत-सो होकर धीरे-धीरे पतली धार में आनन्द से बह रही थी। उपाहार के शद हाथ-मह धोने के लिए रानियाँ सीढ़ियों से उतरी। महाराज भी वहीं उपस्थित हो गये। पद्मना, जो वहीं खड़ी होकर चारों ओर देख रही थी, बोली, "उधर फल-फूलों से लदे आम और इधर पतली होकर वहिनेवाली नदी! काश, नदी भी भरकर बहती तो कितना सुन्दर होता!" ।
' “टा, भो सौन्दयं को देखने में आनन्द नो आता ही है.'' कहते हुए बललाल ने अपने में दो सीढ़ियों नीचे खड़ी अपनी रानियों की ओर देखा।
से क्यों देख रहे हैं। भर सौन्दर्य का आनन्द वहाँ उस अमराई में है। इस तरफ़ अभी जो कुछ है वह कंबल पतली बनी यमची मात्र है" चामलदेवी ने कहा।
"वर्षाकाल जर तक न आए, वगची भरे कैसे?'' बोप्पदेवी ने सवाल किया और यहिनी की और न देखकर बनाल की ओर दृष्टि डाली।
"उधर क्या देखता हो आकाश की ओर? वहाँ तो बरसाकर रीते हुए बादल ही हैं।' चापला ने व्यंग्य किया।
सहज ही तो है, अंग भरने की अभिलाषा होना स्त्री के लिए सहज ही तो है। प्रकारान्तर से मन की अभिलाषा दूसरे ही ढंग से प्रकट होती है-बल्लाल को लगा। वह बोले, “आओ, आप लोगों को एक पुरानी बात बताऊँ। घटना इसी स्थान पर घटी छी। अचानक पाद आ गयी। तब और अब में कितना अन्तर है! दृष्टिभेद और भाव भी भिन्न हैं-यही तो आश्चर्य है:'' कहते हुए सीढ़ियों चढ़कर मण्डप में प्रवेश किया और अंगरक्षक से कहा, ''तुम जाकर पालकी के पास रहो, जरूरत होगी तो बुला लेंगे। यह सब भी उठा से जाओ।"
रानियों के चढ़कर आते-आते अंगरक्षक चला गया था। थोड़ी देर सब मौन बैटे रहे। चामलदेवी ने बल्लाल की ओर देखकर कहा, ''मौन क्यों? पुरानी बात का यही माने है?" ____ "कहाँ से और कंसे शुरू करें-यहीं सोच रहा था। हमारे छोटे अप्पाजी के
2fiH :: पमहादेबी शान्तला : भाग दो