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सकेंगी-इसकी कल्पना तक हमने नहीं की थी। शान्ति, संयम, प्रज्ञा-इस त्रिवेणी का संगम है शान्तला । वह शीघ्र ही राजपरिवार की सदस्या बनने जा रही है वह राजपरिवार के भव्य भविष्य को शुभ सूचना है। इस शुभ अवसर पर शान्तला को 'उभय-क्रम-मृत्य-परिणता' की प्रशस्ति से सन्निधान भूषित करें-वह हमारी प्रार्थना हैं।" पटरानी पधला ने निवेदन किया।
___'मैंने प्रशस्ति पाने के लिए विद्या नहीं सीखी और न उसका प्रदर्शन ही किया। मुझे किसी तरह की प्रशस्ति की जरूरत नहीं। इस खुशहाली के अवसर पर वह मेरी अल्प सेवा है, समझकर मैंने नृत्य किया। सेवा का फल आत्मानन्द है। आत्मानन्द का मूल्य प्रशस्ति देने के रूप में निश्चित करना उचित नहीं । सन्निधान इतनी कृपा करें कि मेरा आत्मानन्द मेरे लिए बच रहे ।'' शान्तला ने विनीत होकर प्रार्थना की, और फिर हाथ जोड़कर प्रणाम किया। ___ "किसी के आत्मानन्द को छीनने की हमारी इच्छा नहीं हैं। कला वृद्धि केवल आत्मानन्द तक ही सीमित नहीं। सहृदयों की प्रशंसा कला की वृद्धि के लिए एक तरह का साधन भी है। इसलिए कला की प्रगति और अभिवृद्धि को लक्ष्य में रखकर ही हम यह प्रशस्ति दे रहे हैं। इस प्रशस्ति को स्वीकार करना कलाकार की अभिरुचि पर निर्भर है।" बल्लान ने अपना निर्णय दिया।
"जो आज्ञा'' कहकर शान्तता महाराज के पास गयी। पैर छूकर उसने प्रणाम किया और निवेदन किया, ''इस प्रशस्ति के फलस्वरूप मुझमें अहंकार की भावना उत्पन्न न हो यही आशीर्वाद दें।"
अपने दोनों हाथ शान्तला के सिर पर रखकर महाराज बल्लाल बोले, "उठो, तुम्हारा नाम लेने मात्र से अहंकार इरकर दूर भागता है। वह तुम पर आक्रमण कैसे करेगा? ग़लती स्वीकार करने के फलस्वरूप टूटे मन जुड़ते हैं, एक होते हैं, इस बात को प्रमाणित कर दिखानेवाली तुम हो। एक समय था जबकि मैंने भी कहा था कि तुममें अहंकार है। वह मेरे अज्ञान के कारण कही गयी बात थी। मेरी इस ग़लत धारणा को जानती हुई भी तुमने उसकी परवाह नहीं की और प्रयास कर इधर के सारे बिखराब को बड़ी मजबूती से जोड़ा, पुनः एक बनाया। तुम्हें अपने परिवार में सम्मिलित करना इस परिवार का महान भाग्य है। पटरानी जी की इस बात से मैं सम्पूर्ण रूप से सहमत हूँ। छोटे अप्पाजी! तुम और शान्तला डानों मों के पैर छूकर एक साथ प्रणाम कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करो। माँ का आशीर्वाद ही भविष्य के मंगल-मुहूर्त के लिए सिद्धिदायक होगा।"
दोनों ने महाराज को आज्ञा का पालन किया। आनन्दाथ के साथ महामातृश्शी एचलदेवी ने दोनों को आशीष दिया। रेविमथ्या ने वहाँ अपनी उपस्थिति को भूलकर हर्ष विहल हो करतल ध्वनि की।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 207