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उन दोनों के लिए यह अनिरीक्षित विषय था। उन लोगों के मन में कभी यह विचार उठा ही नहीं था। धे सोचने लगीं : रानी होने की आशा का होना तो सहज ही है, परन्तु अपनी दीदी जिससे विवाह करे उन्हीं से विवाहित होना ठीक है?
चामला को काफ़ी दिन पहले घटी एक घटना की याद आ गयी। उस दिन उसके वहाँ, बन्लाल अतिथि बनकर गये थे। बल्लाल जब अकेले रहे तब उसने पञ्चला को बुलाने के लिए घण्टी बजायी लेकिन चामला अन्दर आ गयी: उसी को अनजाने में पद्मला समझकर, “मैं तुम्हें चाहता हूँ।" कह दिया था। जब देखा वह पद्मला नहीं, तो वह कुछ अकचकाकर पूछने लगा, "तुम्हारी दीदी कहाँ है?" तब उसने पूछा था कि "उसे ही चाहिए? मैं ही आऊँ तो क्या...?" यही वह घटना थीं। यह सब पुरानी और बचपन की बातें थीं। अब उसे लग रहा था कि ये बातें : ही अपू मानला तकित मी हुई। साथ ही उसी समय की
और एक घटना याद आ गयी। तब उसने कहा था - "लब आपका हिस्सा मेरा चना, वहाँ दीदी के साथ मेरा हिस्सा आपका..."-इसी धुन में वह सोचने लगी थी।
मेरी दीदी को कोई एतराज नहीं हो तो मैं विवाह के लिए तैयार हैं।" चापला ने कहा। ''अव मेरा क्या: मुझे भी अपने साथ कर लो।' खोप्पि ने भी कहा।
अब वही निश्चय हुआ कि एक ही विवाह वेदी पर महादण्डनायक मरियाने की तीनों बेटियों का विवाह महाराज के साथ हो।
लड़कियों के मामा प्रधान गंगराज ने ही तीनों बेटियों का कन्यादान किया। हाल के युद्ध के कारण राज्य का खजाना खाली हो गया था। इससे विशेष धूम-धाम के बिना, विशेष आह्वानों के बिना, केवल दोरसमुद्र और उसके इर्दगिर्ट ही आमन्त्रण पत्र भेज देने का निर्णय महाराज बल्लाल ने सुनाया। उसी तरह व्यवस्था की गयी। शक संवत् 1025 के श्रीमत् स्वभानु संवत्सर, कार्तिक सुदी दशमी के दिन, शुभ मुहूर्त में गंगराज की बहिन चामन्ये दण्डनायिका और मरियाने दण्डनायक की पुत्रियों पद्मलदेवी, चामलदेवी और बोप्पदेवी-तीनों के साथ पोय्सल महाराज बल्लालदेव का शुभ विवाह सम्पन्न हुआ।
इसके पश्चात् राजमहल में महामातधी एचलदेवी को नौकरानियों से मंगलद्रव्य दिलाने की जरूरत नहीं पड़ी। राजमहल में अब तीन-तीन सुमंगलियाँ रह रही थीं। ___ इस विवाह के बाद महाराज ने ससुर को बुलवाकर कहा, "उस दिन आपने विधान्ति पाने की इच्छा प्रकट की थी। आपको विश्राम की आवश्यकता थी इस बात को जानते हुए भी तब आपकी इच्छा पूरी न कर सका। तब आपकी आशा
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 269