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"धारानगरी के राजा भोज के हित के लिए। एरेवंग प्रभु के रहते विक्रमादित्य की हार नहीं हो सकेगी-यह जानकर उन्होंने इस काम के लिए मुझे नियोजित किया। मैं यहाँ आ बसा। राजमहल में दण्इनायिका की आवाजाही के लिए कहीं कोई अड़चन नहीं, इस बात का पता लगाया। चौकी से मैत्री वढ़ायी। वशीकरण में उसे मदद देकर उसी के द्वारा दण्डनायिका के मन में विश्वास जगाया। चोकी से मैंने झूठ कहा कि मैं शत्रुओं का गुप्तचर हूँ। या इसलिए कि मैं उसका विश्वासभाजन बन जाऊं। दोनों एक ही व्यक्ति द्वारा नियोजित मान उसे मुझ पर विश्वाप्त हो गया ! योगी की बातों से पता लगा कि सचिवः को चिन्ताएँ है, उनके स्वभाव में कष्ट दुर्बलताएँ हैं। यह सब मेरे कार्य के लिए अनुकूल पड़ा। एक दिन खुद देण्इनायिका मेरे घर आयीं। उन्होंने बताया कि कोई उन्हें बुरा बनाने के लिए उनके प्रयत्नों को विफल करने में लगे हैं। उन विफल करनेवालों को समझने की बहुत कोशिश की परन्तु सफलता नहीं मिली। उन्होंने कुछ कहा नहीं । बस, वापाचार के प्रयोग से उन्होंने अपनी बाधाओं को दूर करने की इच्छा प्रकट की। मैंने सर्वतोभद्र बन्त्र तैयार कर देने की बात कही। उन्होंने बताया कि यह मन्त्र उनकी बेटियों के लिए भी चाहिए। मैंने कुल चार यन्त्र बनाकर दिये। पेरे कार्य को उससे चौगुना बल मिला। मैंने जानबूझकर इन चारों यन्त्रों में एरेयंग प्रभु के विरुद्ध मन्त्र का प्रयोग किया था, क्योंकि मैंने सोचा कि ये लोग किसी बाधा या रोक-टोक के बिना गजमहल में चल-फिर सकती हैं और उससे एरेयंग प्रभु के विरुद्ध ग्रहशक्तियों को प्रबल बनने में सहायता मिलेगी। यही हुआ। ग्रहपीड़ा अधिक क्रियाशील बनी। वे स्वयं यह नहीं जानती थीं कि वे क्या कर रही हैं; अनजाने ही ये चारों मेरी मदद के लिए बड़ी आसानी से हाथ आ गयीं। अंजन-क्रिया चली। उस दिन दण्डनायिका ने जिसे देखा वह एरेयंग प्रभु ही थे-यह मैं जानता था। मैं चाहता भी यही था। उन्होंने बताया नहीं, फिर भी मेरे लिए समाधान की बात थी, क्योंकि मैं जो चाहता था उसे देखकर मुझे तृप्ति मिली थी।"
बीच में महाराज बल्लाल चोल उठे, "उस दिन तो गंगराज प्रधानजी के सामने कुछ और ही बक रहे धे!"
'हो, अपनी जान बचानी थी, इसलिए झुट बोलना ही पड़ा था। मेरे इस झूट बोलने के लिए दण्डनायिका एक अस्त्र की तरह मेरे हाथ लगी थी। मेरे लिए दूसरा चारा नहीं था। अपनी शक्ति का सीधा प्रयोग करने में मुझे सहायता मिली सां मैंने उसका सीधा प्रयोग किया। इसके बाद देश-निकाले का दण्ड मुझे वरदान के रूप में मिला। उस महात्मा ने, जिसे मार डालने के लिए, मैं आया था, मुझे अमृत ही पिलाया।"
24 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो