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किसी वैयक्तिक विषय को लेकर विचार करने के लिए महासभा का आयोजन किया गया था, परन्तु सुनवाई के होते-होते बहुत दूर-दूर के राजनीतिक सवाल उठ खड़े हुए। मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार, चोकी और वामाचारी को सूली पर चढ़ाने का निर्णय हुआ। इसकय्या को देश-नकाले का दण्ड दिया गया और फिर वह आये तो पहचानने के लिए उसके दायें हाथ पर लोहे की गर्म शलाका से दो बार दाग भी दिया गया।
चट्टला की सबने प्रशंसा की और सबने उसके प्रति सहानुभूति दिखायी। उसे स्वीकार करके फिर से परिवार बसाने की सलाह रावत मायण को देने का निर्णय करने का किसी को साहस नहीं हुआ, क्योंकि यह सीधे उसके वैयक्तिक जीवन से सम्बद्ध विषय था। किसी की जबरदस्ती या अनिवार्च परिस्थिति के वशीभूत होकर आज टुर वह स्वीकार कर ले आर कल उसकं पारिवारिक जीवन में सामंजस्य न हो पाए तो क्या होगा? यह शंका उत्पन्न होने के कारण चट्टला के भविष्य के बारे में निर्णय करने का उत्तरदायित्व उन्हीं दोनों पर छोड़ दिया गया।
इधर मावण सोचने तगा : 'यदि मैं स्त्री होता और क्षमा याचना करने की हालत उत्पन्न हुई होती तो क्या होता? क्या सहानुभूति एवं उदारतापूर्ण व्यवहार की आकांक्षा न करता?' स्वभाव से वह अच्छा आदमी था। उसका मन साफ़ था । बहुत सोच-विचार करने के बाद उसने चट्टला से कहा, ''हम पहले की ही तरह पारिवारिक जीवन बिताएगे।'' ____ चट्टला ने कहा, 'आप में पहला का-सा ही प्रेप मुझ पर है, वह कभी पालन नहीं हुआ। परन्तु मेरा यह शरीर कलंकित हो चुका है। बड़े प्रेम से पाणिग्रहण करनेवाले के साथ मैंने धोखा किया और भाग खड़ी हुई-आपने अब तक यही सोचा होगा। ऐसा सोचना गलत भी नहीं। परन्तु मैं धोखेबाज्ञ नहीं, इच्छापूर्वक नहीं भागी। आपके उस पवित्र प्रेम को कलंकित करनेवाली नहीं। ऐसा मानकर आप मुझे क्षमादान देकर अनुग्रह करें, यही मेरे लिए पर्याप्त है। कोई पूर्व जन्म का पुण्य था। सो मेरा आपसे विवाह हुआ, मैं आजीवन आपकी सेवा करती रहूँगी 1 आपके साथ पारिवारिक जीवन में योगदान दे सकने की योग्यता मैं खो बैंठी हूँ। आप दूसरा विवाह कर लें। मुझे आप दोनों की सेवा करते रहने की स्वीकृति देकर मुझ पर अनुग्रह करें।"
"दूसरा विवाह करके तुम्हें दासी बनाकर रखना मुझसे सम्भव नहीं।''
"आपका जीवन निरर्थक न जाय। आप दूसरा विवाह करके सुखी जीवन बिताएँ। मैं अपने जीवन को, सन्निधान की आज्ञा के अनुसार, राष्ट्र-सेवा के लिए धरोहर के रूप में समर्पित कर दूंगी। पास रहकर, पुरानी बातों को याद कर,
254 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो