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हो.-'जाना ही होगा?' न जाएंगे तो हथकड़ी पहना ले जाएँगे। अब तुम्हारी बात मान लूँ तो वह भी हो जाएगा।" पद्मला तुनक पड़ी।
"ओफ़'' एक लम्बी साँस लेकर उसने करवट ले ली। बेटियों का सामना करने की उसकी हिम्मत नहीं हुई।
माजमहल जाने से पहले के मातीका चामब्बे के मन पर बहुत प्रभाव पड़ा। अब तो वह एक तरह से सन्तान के प्रेम से वंचित मां हो गयी थी। पड़े-पड़े वह भगवान से प्रार्थना करने लगी, ''हे भगवान! सन्तान भी अब मुझसे प्रेम नहीं करती। ऐसी माँ होकर जीवित रहने का भी क्या प्रयोजन? शायद पेरा जीवित रहना ही मेरी बेटियों की भलाई के लिए भारी अड़चन का कारण हो। भगवन्! मुझे अब इस धरती से उठा लो। वे सुखी रहें। इतना काफ़ी हैं। यह सब है कि एक समय था जबकि मैं महत्त्वाकांक्षा रखती थी। मैं चाहती थी कि पोसल महाराज की सास बनकर इतराती-इठलाती फिलें। शायद भगवान की वह इच्छा नहीं रही। मुझे इसलिए बीमार बना दिया। जल्दी बुला लो भगवन् ! इतनी कृपा करो भगवन!"
राजमहल से बेटियों लौट आयीं। मरने की चाह रखनेवाली चापब्बे को यह जानने की इच्छा हुई कि राजमहल में क्या-क्या बातें हुई। उसे लगा कि इसी बहाने महाराज से बेटी की कुछ बातचीत तो हुई होगी। उसने पूछा, ''बेटी, महाराज ने तुमसे बात को?"
"हाँ, इतनी देर तक हम दोनों का ही एकान्त चना। तुमने तो इसके लिए बहुत ही अच्छी भूमिका बना रखी है न?" पद्मला ने बहुत कड़वे ढंग से कहा।
'जाने दो। मैं कुछ बोलती हूँ तो सब पर गुस्मा सवार हो जाता है। एक लम्बी साँस ली चामब्बे ने। ___ "माँ, हम विश्वासपात्र नहीं। कहते हैं कि हम झूठ बोलनेवाली हैं।" चामला बोली।
"हाँ, क्यों न कहेंगे। बड़ों का पाप घर-भर का शाप।" व्यंग्य करती पद्यला ने कहा।
चामथ्या गुस्से से लाल होकर उठ बैटी। उसी आवेश में उसने पूछना चाहा, "क्या कहा " परन्तु दम घुटने के कारण आवाज़ नहीं निकली।
"कुछ नहीं। तुम चुपचाप आराम से पड़ी रही।'' कहती हुई पद्मला वहाँ से निकल गयी। दोनों बहिनों ने भी उसी का अनुकरण किया।
चामध्ये विमूढ़-सी उस तरफ़ देखती बैटी रही जिधर बेटियाँ गयी थीं।
बेटियाँ अपने पिता के कक्ष में पहुँची और राजपाल में जो तहकीकात हुई वह सब विस्तार से कह सुनायी। सब सुनकर वह भौचक्का हो गये। वह वामाचारी
224 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो