________________
वहाँ के नौकर-चाकरों को बाहर भेजकर किवाड़ बन्द करके मारसिंगव्या ने धीरे-से एचलदेवी को समाचार सुनाया।
सुनते ही एचलदेवी एकदम स्तम्भित हो गयीं। माचिको कुछ ढाढस के साथ उठ खड़ी हुईं। एचलदेवी फिर प्रसूतिगृह की ओर चल दी।
मारसिंगय्या ने जल्दी-टल्दी आगे बढ़कर किवाड़ धीरे-से सरकाया। चन्दलदेवी मौन लेटी थीं। उसके सिरहाने पर कोने में धाय बच्चे को गोद में लिटाये बैठी थी। किवाड़ के खुलते ही घबराकर धाय ने पूटा, "कौन?"
"सन्निधान फिर आ रही हैं।" मारसिंगय्या ने कहा। वह घबराकर खड़ी हो गयी। एचलदेवी अन्दर गयीं। मारसिंगय्या ने अपनी पत्नी को बाहर ही रोक रखा। पिता के उद्देश्य को समझकर शान्तला माँ के साथ बाहर ही खड़ी रहीं। यहाँ एक तरह का गम्भीर मौन छाया रहा। ___चलदेवी चन्दलदेवी की बग़ल में बैठकर सोच में डूब गयीं। इस बुरी खबर को कैसे सुनाएँ: इसी चिन्ता में वे अन्यत्र देखने लगीं। फिर चन्दलदेवी का हाथ अपने हाथ में लिया। फिर हाथ को तुरन्त छोड़कर ओढ़नी निकालकर उनका पैर छूकर देखा, गाल पर हाथ रखा, टुइडी पकड़कर हिलाया। पुकारा, "दण्डनायका जी।" और उनकी आँखों की ओर एकटक देखने लगीं। उस समय चन्दलदंवी की दृष्टि ही ऐसी लगती थी।
"दण्डनायिका जी, ऐसा क्यों देख रही हैं। बोलिए।" कहती हुई चन्दलदेवी के शरीर को एचलदेवी ने हिलाया। चन्दलदेवी का सिर निराधार-सा एक तरफ़ लुढ़क गया । एचलदेवी ने उनकी नाक के पास उँगली रखकर देखा । बोलीं, ''जल्दी जाकर वैद्यजी को चला लाएँ।"
मारसिंगय्या भागे और तुरन्त वैट को बुला लाये। इतने में शान्तला और माचिकब्बे अन्दर जाकर हाथ चाँधे खड़ी हो गयीं। वैद्य ने नब्ज देखी, आँखों के पलक उठाकर देखने की कोशिश की। कई तरह से जाँच करने के बाद यह उठ खड़े हुए, और सिर झुका लिया।
सब समझ गये, चन्दलदेवी अब नहीं रहीं। पुत्रोत्सव की खुशियाँ मनाता घर दुःख में डूब गया। इतने में चन्दलदेवी की दोनों बेटियों भी वहीं आ गयीं और माँ के शरीर पर लोट-लोटकर जोर-जोर से रोने लगीं। मरण से कभी भी विचलित न होनेवाले हेग्गड़े भी दीवार की ओर मुंह कर रो पड़े।
धाय की छाती से चिपका शिशु निश्चिन्त सो रहा था। जन्म देनेवाली माँ के प्रेम का उष्ण स्पर्श उसे अन्यत्र प्राप्त हो रहा था। एक बार फिर सब सजग हो उठे। एचलदेवी ने कहा, "हेग्गड़ेजी, महाराज के लौटने तक बच्चा आपके यहाँ
पट्टमहादेवी शान्नला : भाग दो :: 203